Thursday, December 2, 2010

चाटुकारिता का धार्मिक सांस्कृतिक संदर्भ

न चापलूसी करने वाला यह मानने को तैयार होता है कि वह चापलूस है और न चापलूसी करवाने वाला यह स्वीकार करता है कि वह चापलूसीपसंद है, यानी कि दोनों ही पक्ष अपने अंदर इसके अस्तित्व से इनकार करते हैं, तो भी चापलूसी सामान्य रूप से सारे जीवन और जगत में तथा विशेष रूप से कार्यालयीन जीवन में प्रचुरता से पाई जाती है। जिस तरह माया ने सारा जगत आच्छादित किया हुआ है, उसी प्रकार चाटुकारिता भी सर्वत्र व्याप्त है। जिस तरह बड़े बड़े सिद्ध ऋषि मुनि माया से नहीं बच पाते, उसी तरह चाटुकारिता से सर्वथा अछूता रह पाना लगभग असंभव ही है। कबीर ने माया को महाठगिनी कहा था, चाटुकारिता भी माया की तरह अनेकानेक रूप धारण करती रहती है और द्रष्टा को भ्रमित किए रहती है। जहाँ वह विद्यमान है, वहाँ वह प्रतीत भी हो ऐसा आवश्यक नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि जहां वह प्रतीत हो रही है वहाँ वह सचमुच ही विद्यमान है। अपने अंदर इसे देख पाना कठिन होता है, किंतु दूसरे के अंदर कदम कदम पर उसके दर्शन सहज ही हो जाते हैं। बात यह है कि वही काम जब व्यक्ति स्वयं करता है, तो उसे लगता है कि वह तो सामने वाले को उसका वाजिब सम्मान मात्र दे रहा है , सामने वाला उससे खुश है तो इसलिए कि वह अपने दायित्वो का भली प्रकार निर्वाह कर रहा है किंतु जब सामने वाला किसी दूसरे से खुश होता हैं तो उसे लगता है कि दूसरा चाटुकारिता कर रहा है और सामनेवाला चाटुकारितापसंद व्यक्ति है। दूसरा जब मीठा मीठा बोल कर अपना काम बना ले जाता है तो लगता है कि उसने चाटुकारिता की सारी सीमाएँ तोड़ दी है पर व्यक्ति खुद जब वही सब करता है तो उसे लगता है कि वह तो ‘सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम’ के शास्त्रोक्त परामर्श का अनुसरण मात्र कर रहा है।



भौतिक जीवन में चापलूसी का वही स्थान है, जो आध्यात्मिक जीवन में भक्ति का होता है। गहरी भक्ति के बल पर साधु संत जीवन का अभीष्ट प्राप्त कर सकते हैं और गहरी चाटुकारिता से भौतिक जीवन में सफलता के नए आयाम स्थापित किए जा सकते हैं। धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन में अभीष्ट सिद्धि के कई मार्ग बताए गए हैं - कर्म मार्ग , ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग। गोस्वामी जी ने ज्ञान और भक्ति को समान रूप से कारगर बताया है - ‘ज्ञानहिं भगतिहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा।’ अर्थात् ज्ञान अथवा भक्ति दोनों से सांसारिक दुखों का निवारण हो सकता है। इसके बावजूद ईश्वर को भक्ति प्रिय है -‘तदपि रघुवीर भगति पियारी ।’ ठीक इसी प्रकार कार्यालयीन जीवन में आप कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि विविधि मार्गों से ऊँचाइयों को छू सकते हैं किंतु बॉस को भक्ति विशेष प्रिय होती है। अब आप कहेंगे कि होती होगी बॉस को भक्ति प्रिय, जब हम ज्ञान और कर्म से ऊँचाइयां छू सकते हैं तो हम नहीं करते भक्ति । मगर इसमें एक अड़चन है। व्यक्ति कर्म और ज्ञान के सहारे ऊँचाइयों की ओर बढ़ता तो है किंतु उसे भय लगा रहता है। उसमें थोड़ी भक्ति का पाग भी हो तो भय नहीं रहता और भक्तिभाव यदि अगाध हो तो सर्वथा अभय ही मिल जाता है, कर्मों-कुकर्मों का फल भी नहीं भोगना पड़ता। व्यक्ति डाइनामिक होकर काम कर सकता है, रिस्क ले सकता है और ‘प्रैक्टीकल’ हो सकता है, जबकि भक्ति भाव के अभाव में पूरी तरह ‘थ्योरिटिकल’ होते हुए भी उसके काम में अनेक अक्षम्य कमियों का अन्वेषण होने का अंदेशा रहता है।



भक्ति के बिना अहंकार का नाश भी नहीं होता। कोई कोई इसे स्वाभिमान भी कहते हैं। एक ही गुण के ये दो नाम अवलोकन बिंदु (व्यू पॉइंट) के भेद से कहे गए हैं। अपने अंदर होने पर जिस चीज को स्वाभिमान की संज्ञा दी जाती है, वही दूसरे के अंदर होने पर अहंकार कही जाती है। भक्ति भाव के जरिए इस अहंकार का नाश होता है । इससे जीवन में सुख आता है और मन निर्मल हो जाता है। सामने वाले को भी अपना भजन कीर्तन सुनकर बहुत सुख होता है और जब ये दोनों जीव इस द्विमार्गी सुख में डूबे रहते हैं तो बाकी लोग निर्भय होकर पान खाने या चाय पीने के बहाने कार्य से दूर रहकर यत्र तत्र विचरते हुए सुखी होते हैं और फलस्वरूप सबके मन में सबके प्रति सद्भावना का उदय होता है, यानी ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।’



भक्ति भाव का फल देने के मामले में भगवान और बॉस समरूप व्यवहार करते हैं। यह बात दीगर है कि भगवान इसे स्वीकार करते हैं और बॉस इसे स्वीकार नहीं करता। स्वीकार कर लेता तो भगवान न हो जाता। किंतु सच को स्वीकार न कर पाना सहज मानवीय दुर्बलता है। इसीलिए भगवान भगवान होते हैं और आदमी आदमी। भगवान साफ-साफ कहते हैं कि ‘सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहम त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्षयष्यामि मा शुचः।’ अर्थात सभी धर्मो को छोड़कर तू एक मेरी शरण में आ। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा और डर मत। बॉस यद्यपि ऐसी घोषणा नहीं करता तथापि अपने कार्यकलापों से मैसेज यही देता है कि तू मेरी शरण में आ। मैं तुझे सारे अपराधों से मुक्त कर दूँगा और अभयदान दूँगा सो अलग। चाहे जितने भी गलत काम किए हों, परंतु व्यक्ति यदि दाएं बाएं सब छोड़कर एक मात्र प्रभु (बॉस) की शरण में अनन्य भाव से चला जाए, तो फिर बॉस उसे निराश नहीं करते। करें भी कैसे हमारे गोस्वामी जी बहुत पहले ही नीति निर्धारित कर गए हैं -

शरणागत को जे तजहि निज अनहित अनुमानि

ते नर पाँवर पापमय तिनहिं बिलोकत हानि।



सो चाटुकारिता का मार्ग सर्वथा निरापद और अचूक है। बच्चन जी की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियाँ है -‘अलग अलग पथ सब बतलाते पर मैं यह बतलाता हूँ - राह पकड़ तू एक चला जा पा जाएगा मधुशाला। वह एक राह कौन सी है इसका खुलासा बच्चन जी नहीं करते। हो न हो वे चाटुकारिता की राह की ही बात कर रहे हों, क्योंकि मधुशाला यानी कि अभीष्ट सिद्धि का इससे अधिक अचूक मार्ग और भला कौन सा होगा।



कुल मिलाकर चाटुकारिता एक ऐसा मार्ग है जिस पर हम अगर कायदे से चल सकें, तो सहज ही लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। तमाम बातों में यह भक्ति मार्ग की तरह है, तो कुछ बातों में यह ज्ञान मार्ग की तरह भी है। जैसे ज्ञान का पंथ कृपाण की धार की तरह होता है और उस पर बहुत सावधानी से चलना होता है, वैसे ही चाटुकारिता के पथ पर भी बहुत कौशल वाले ही चल पाते हैं नहीं तो "परत खगेस होइ नहिं बारा "। कुछ लोगों में यह कौशल जन्मजात होता है, तो कुछ इसे अर्जित करते हैं। परंतु अर्जित करने वालों में कुछ लोग ही ऐसे होते हैं, जो जन्मजात वालों का मुकाबला कर पाएं। कुछ तो ऐसे होते हैं, जो तमाम प्रयास के बाद भी इसे अर्जित नहीं कर पाते और इस पर चलने की कोशिश करते ही अपना नुकसान करा बैठते हैं। ऐसे ही लोग अपनी हीनभावना के चलते चाटुकारों को हेयदृष्टि से देखते हैं, वरना जन्मजात इस प्रतिभा को बड़े जतन से तराश कर चाटुकारिता में सिद्धहस्त हुए व्यक्तियों की प्रतिभा और परिश्रम श्लाघनीय है, वंदनीय है।

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