Friday, August 13, 2010

निंदा जीवन का आधार

निंदा शब्द को बहुत खराब माना जाता है। हमारे वेद-शास्त्र भी निंदा की निंदा करते रहे हैं और आदमी को उससे दूर रहने की सीख देते रहें हैं। आधुनिक युग में भी शायद ही कोई निंदा को अच्छा बताए। आपकी नजर में अगर कोई ऐसा आदमी हो जो हमेशा सब की निंदा ही करता रहता हो, उससे भी यदि आप निंदा के विषय में बात करें, तो वह यही कहेगा कि किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। इस सब के बावजूद निंदा का रथ निरंतर आगे बढता रहा है। वैसे ही जैसे कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी निकल जाते हैं। इतनी लानत-मलानत के बावजूद यदि निंदा ने विश्व विजय किया हुआ है, तो उसका कोई तो कारण होना चाहिए।



कारण दरअसल यह है कि निंदा जीवन का आधार है। क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि आदमी जितना बोलता हैं उसमें से निंदा का कितना अंश होता है। ऐसे गणना करना शायद कठिन होगा। किसी दिन आप यह तय कर लीजिए कि आज हम किसी की निंदा नहीं करेंगे। बात करना मुश्किल हो जाएगा। किसी से क्या बात करेंगे । यही कि कैसे हो, क्या हाल हैं। एक लाइन में वह इसका उत्तर दे देगा। फिर आगे क्या बात करेंगे। बात को किसी न किसी तरह निंदा की ओर ले जाना ही होगा। अंतर बस इतना ही है कि सीधा-सादा आदमी तुरंत शुरू कर बैठेगा और ‘क्या हाल-चाल हैं’ के उत्तर में ही बोलने लगेगा अरे क्या बताएं हम तो शर्मा जी परेशान हैं और बस ....। थोड़ा समझदार आदमी होगा तो सीधी निंदा करने से बचेगा, हाल-चाल बहुत बढ़िया बताएगा फिर शर्मा जी के विषय में कोई अच्छी सी बात कहेगा, जैसे आज शर्मा जी के बच्चे का रिजल्ट आया। बहुत अच्छे मार्क्स आए हैं । पर दिलचस्पी मार्क्स में नहीं कहीं और है। वह जानता है कि सामने वाला शर्मा जी से चिड़ा बैठा है और उनकी बढ़ाई करते ही वह तिलमिला कर अपना निंदा अभियान शुरू कर देगा और फिर समझदार आदमी को बिना कुछ पाप किए ही निंदा रस प्राप्ति का परम पुरषार्थ सिद्ध हो जाएगा। चाहे काम की बात हो या मामूली गपशप, बात आगे बढेगी, तो किसी न किसी रूप में निंदा तक पहुँचेगी जरूर। कभी आप सतर्क होकर निंदा की बात आते ही विषय भी बदल सकते हैं किंतु इससे भी निंदा मरती नहीं, वह तो रक्तबीज की तरह बार-बार उठ खड़ी होती है। और इस तरह अधिकांश समय हम निंदा ही करते रहते हैं। इसलिए भी कि उसमें बड़ा रस आता है और इसलिए भी कि उसके बिना बड़ी दिक्कत होती है। अगर निंदा नहीं करेंगें, तो बातचीत के लिए कॉमन विषय नहीं मिलेगा और मिलेगा भी तो उस बातचीत में कोई मजा नहीं आएगा। आप किसी से मिलने जाएं और थोड़ी देर बातचीत के बाद घुमाफिर कर ही सही किसी की निंदा का प्रसंग न चले, तो अंदर कुछ खुदर-बुदर सी होती रहती है - दोनों ही तरफ - मेहमान को भी और मेजबान को भी। तो इस तरह अगर हम बहुत कड़े मानक अपनाते हुए निंदा को अपने जीवन से पूरी तरह बाहर कर दें, तो सत्तर फीसदी बातचीत कम हो जाएगी। और आदमी दिन भर में जितना बोलता है, उसमें से अगर सत्तर फीसदी बोलना कम कर दे तो पगला जाएगा, उससे रहा ही नहीं जाएगा, मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाएगा वह और अंततः उसका काम तमाम हो जाएगा। तो इस तरह निंदा के अभाव में जीवन ही नहीं रहेगा। इसलिए इस बात को स्वीकार करने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि निंदा जीवन का आधार है। इति सिद्धम्।



साथ साथ यह भी न भूलें कि निंदा का एक बड़ा योगदान आपस में आत्मीयता पैदा करना है। क्योकिं आत्मीयता तो दो ही तरह से पैदा होती है - साथ बैठकर खाने पीने से और साथ बैठकर निंदा करने से। इसलिए आइए भक्ति भाव से निंदा को प्रणाम करे डऔर निंदा की दुर्भावना प्रेरित निंदा को टाटा-बाय-बाय कहकर पाखंड से दूर रहें। प्रणाम सिर्फ निंदा को ही नहीं निंदक को भी करना चाहिए, क्योंकि महात्मा कबीर दास बहुत पहले कह गए है किं ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।’ मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था क्योंकि धर्म की पिनक में लोग अपने वास्तविक दुख-दर्द को भूले रहते हैं। जिस तरह धार्मिक प्रवचनकर्ता अपनी मधुर वाणी से दैहिक-दैविक-भौतिक तापों से त्रस्त जन-मानस को कुछ समय के लिए मधुर विश्रांति के एक भिन्न लोक में ले जाते हैं, उसी प्रकार निंदक-प्रवर अपनी वाणी से ईष्ष्यालुओं के मनस्ताप को हर लेता है। जिस तरह अच्छी कविता अथवा साहित्य में तन्मय होकर व्यक्ति कुछ देर के लिए अपने अस्तित्व को भूल जाता है, उसी प्रकार निंदक अपनी कला से सामने वाले को मात्र भावसत्ता में परिणत कर देता है। हर निंदक की अपनी पद्धति होती है, अपना कौशल होता है और इसलिए उनका अलग-अलग प्रभाव होता है। इस दृष्टि से देखें, तो निंदको का वर्गीकरण भी संभव है। यों तो निंदकों के कई प्रकार हो सकते हैं, तथापि मोटे तौर पर उन्हें निम्नलिखित तीन वर्गों में रखा जा सकता हैः



रिएक्टिव निंदक - इनके भीतर नैतिकता का कीड़ा कुलबुलाता रहता है। किसी के विषय में कुछ कहने का उनका भी दिल करता है पर यह नैतिकता का कीड़ा उनके मुख विवर पर सख्त पहरेदार की तरह खड़ा रहता है और उनके हृदय से निकले हुए मोतियों को उलटे पाँव वापस लौटा देता है और मुख से बाहर नहीं निकलने देता। निंदा रस का आवेग फिर जोर मारता है और बात मुँह तक आती है तभी फिर नैतिकता का पहरुआ उसे लौटा देता है। इस तरह वे कहूँ या न कहूँ का द्वंद्व जीवन भर झेलते रहते हैं और इसलिए वेः किसी नाटक में अंतःसंघर्ष युक्त पात्र की रचना के लिए अच्छी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। तथापि किसी ओर से आक्रमण होने पर या खतरा उत्पन्न होने पर अंततः वे अपने निंदा अस्त्र का इस्तेमाल कर ही डालते हैं।

प्रोएक्टिव निंदक - इन्हें निंदा करने के लिए किसी उकसावे की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि इनकी निंदा रिएक्टिव नहीं प्रोएक्टिव होती है। वे सदैव ही अपने निंदा अस्त्र को हाथ में लेकर विश्व विजय के अभियान पर निकले रहते हैं। उनके अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को जो भी रोकता है, ये निंदा अस्त्र से उसका सर कलम कर देते हैं। इनकी द्वारा की जाने वाली निंदा इतनी वेगमयी होती है कि आस पास के लोगों को भी अपने साथ सहज बहा ले जाती है। सामान्यतः आदमी निंदा करते करते कर जाता है किंतु बाद में उसे बड़ी आत्मग्लानि होती है कि नाहक ही दूसरों से किसी की बुराई की और उनकी नजरों में गिर गया। किंतु इन प्रोएक्टिव निंदकों के लिए बात एकदम उलटी होती है। उनके निंदायुक्त वचनों को सुनकर श्रोता भी निंदा किए बिना नहीं रह पाता और यदि रह जाता है तो बाद में उसे बड़ी आत्मग्लानि होती है कि कितना अभागा हूँ मैं कि निंदा के उस महापंडित द्वारा किए जा रहे यज्ञ मे डएक आहुति भी न दे सका और उनकी तथा अपनी नजरो में कितना गिर गया।



अनासक्त निंदक - ये लाभ-हानि, दुख सुख आदि से परे रहकर निंदा की उपासना करते हैं। इनके लिए किसी की निंदा करने के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि उस व्यक्ति ने इनका या समाज का कुछ बिगाड़ा हो।हर किसी की निंदा करने के बावजूद इनके हृदय में किसी के प्रति द्वेष नहीं होता। जहाँ तक निंदा का प्रसंग है, इनके हृहय में किसी के प्रति राग भी नहीं होता, क्योंकि राग या आसक्ति कर्तव्य से विमुख करता है, अतः निंदा रूपी कर्तव्य का पालन करने के लिए ये राग और द्वेष दोनों पर विजय पाकर शत्रु और मित्र दोनों की समभाव से निंदा करते हैं। किसी की मित्रता या किसी का उपकार इन्हें निंदा मार्ग से डिगा नहीं सकते। अनुकूल वातावरण मिलते ही अपने मित्र की निंदा में भी उसी प्रकार जुट जाते हैं, जैसे अपने शत्रु की निंदा में। इस सबके बावजूद ऐसे निंदक वंदनीय हैं क्योंकि इनके हृहय कमलपत्र की भाँति निर्विकार रहते हैं। निंदा के माध्यम से ये न तो कुछ हासिल करना चाहते हैं और न कुछ सिद्ध करना चाहते हैं। इनकी कला सिर्फ कला के लिए होती है, उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। ये फल की चिंता किए बिना निरंतर अपना कर्म करते रहते हैं। शत्रु-मित्र सबके प्रति समदृष्टि के कारण ये सबके प्रिय होते हैं। नीरस और बोझिल वातावरण में उनके आगमन मात्र से जिंदादिली का प्रादुर्भाव हो जाता है। उनके मुख कमल से निःसृत होने वाली वाग्धारा अनेकानेक तप्त हृदयों को शीतलता प्रदान करती है और किसी का कुछ न बिगाड़ पाने वाली दुखी और मुरझायी आत्माओं को निंदारस से सींचकर पुनः हरा-भरा कर देती है।



तथापि, यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि निंदको के उपर्युक्त प्रकारों को एक दूसरे से सर्वथा पृथक नहीं समझना चाहिए। ये प्रकार एक दूसरे को काटते-छूते हुए आगे बढ़ते हैं।

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