Thursday, December 2, 2010

चाटुकारिता का धार्मिक सांस्कृतिक संदर्भ

न चापलूसी करने वाला यह मानने को तैयार होता है कि वह चापलूस है और न चापलूसी करवाने वाला यह स्वीकार करता है कि वह चापलूसीपसंद है, यानी कि दोनों ही पक्ष अपने अंदर इसके अस्तित्व से इनकार करते हैं, तो भी चापलूसी सामान्य रूप से सारे जीवन और जगत में तथा विशेष रूप से कार्यालयीन जीवन में प्रचुरता से पाई जाती है। जिस तरह माया ने सारा जगत आच्छादित किया हुआ है, उसी प्रकार चाटुकारिता भी सर्वत्र व्याप्त है। जिस तरह बड़े बड़े सिद्ध ऋषि मुनि माया से नहीं बच पाते, उसी तरह चाटुकारिता से सर्वथा अछूता रह पाना लगभग असंभव ही है। कबीर ने माया को महाठगिनी कहा था, चाटुकारिता भी माया की तरह अनेकानेक रूप धारण करती रहती है और द्रष्टा को भ्रमित किए रहती है। जहाँ वह विद्यमान है, वहाँ वह प्रतीत भी हो ऐसा आवश्यक नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि जहां वह प्रतीत हो रही है वहाँ वह सचमुच ही विद्यमान है। अपने अंदर इसे देख पाना कठिन होता है, किंतु दूसरे के अंदर कदम कदम पर उसके दर्शन सहज ही हो जाते हैं। बात यह है कि वही काम जब व्यक्ति स्वयं करता है, तो उसे लगता है कि वह तो सामने वाले को उसका वाजिब सम्मान मात्र दे रहा है , सामने वाला उससे खुश है तो इसलिए कि वह अपने दायित्वो का भली प्रकार निर्वाह कर रहा है किंतु जब सामने वाला किसी दूसरे से खुश होता हैं तो उसे लगता है कि दूसरा चाटुकारिता कर रहा है और सामनेवाला चाटुकारितापसंद व्यक्ति है। दूसरा जब मीठा मीठा बोल कर अपना काम बना ले जाता है तो लगता है कि उसने चाटुकारिता की सारी सीमाएँ तोड़ दी है पर व्यक्ति खुद जब वही सब करता है तो उसे लगता है कि वह तो ‘सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम’ के शास्त्रोक्त परामर्श का अनुसरण मात्र कर रहा है।



भौतिक जीवन में चापलूसी का वही स्थान है, जो आध्यात्मिक जीवन में भक्ति का होता है। गहरी भक्ति के बल पर साधु संत जीवन का अभीष्ट प्राप्त कर सकते हैं और गहरी चाटुकारिता से भौतिक जीवन में सफलता के नए आयाम स्थापित किए जा सकते हैं। धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन में अभीष्ट सिद्धि के कई मार्ग बताए गए हैं - कर्म मार्ग , ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग। गोस्वामी जी ने ज्ञान और भक्ति को समान रूप से कारगर बताया है - ‘ज्ञानहिं भगतिहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा।’ अर्थात् ज्ञान अथवा भक्ति दोनों से सांसारिक दुखों का निवारण हो सकता है। इसके बावजूद ईश्वर को भक्ति प्रिय है -‘तदपि रघुवीर भगति पियारी ।’ ठीक इसी प्रकार कार्यालयीन जीवन में आप कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि विविधि मार्गों से ऊँचाइयों को छू सकते हैं किंतु बॉस को भक्ति विशेष प्रिय होती है। अब आप कहेंगे कि होती होगी बॉस को भक्ति प्रिय, जब हम ज्ञान और कर्म से ऊँचाइयां छू सकते हैं तो हम नहीं करते भक्ति । मगर इसमें एक अड़चन है। व्यक्ति कर्म और ज्ञान के सहारे ऊँचाइयों की ओर बढ़ता तो है किंतु उसे भय लगा रहता है। उसमें थोड़ी भक्ति का पाग भी हो तो भय नहीं रहता और भक्तिभाव यदि अगाध हो तो सर्वथा अभय ही मिल जाता है, कर्मों-कुकर्मों का फल भी नहीं भोगना पड़ता। व्यक्ति डाइनामिक होकर काम कर सकता है, रिस्क ले सकता है और ‘प्रैक्टीकल’ हो सकता है, जबकि भक्ति भाव के अभाव में पूरी तरह ‘थ्योरिटिकल’ होते हुए भी उसके काम में अनेक अक्षम्य कमियों का अन्वेषण होने का अंदेशा रहता है।



भक्ति के बिना अहंकार का नाश भी नहीं होता। कोई कोई इसे स्वाभिमान भी कहते हैं। एक ही गुण के ये दो नाम अवलोकन बिंदु (व्यू पॉइंट) के भेद से कहे गए हैं। अपने अंदर होने पर जिस चीज को स्वाभिमान की संज्ञा दी जाती है, वही दूसरे के अंदर होने पर अहंकार कही जाती है। भक्ति भाव के जरिए इस अहंकार का नाश होता है । इससे जीवन में सुख आता है और मन निर्मल हो जाता है। सामने वाले को भी अपना भजन कीर्तन सुनकर बहुत सुख होता है और जब ये दोनों जीव इस द्विमार्गी सुख में डूबे रहते हैं तो बाकी लोग निर्भय होकर पान खाने या चाय पीने के बहाने कार्य से दूर रहकर यत्र तत्र विचरते हुए सुखी होते हैं और फलस्वरूप सबके मन में सबके प्रति सद्भावना का उदय होता है, यानी ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।’



भक्ति भाव का फल देने के मामले में भगवान और बॉस समरूप व्यवहार करते हैं। यह बात दीगर है कि भगवान इसे स्वीकार करते हैं और बॉस इसे स्वीकार नहीं करता। स्वीकार कर लेता तो भगवान न हो जाता। किंतु सच को स्वीकार न कर पाना सहज मानवीय दुर्बलता है। इसीलिए भगवान भगवान होते हैं और आदमी आदमी। भगवान साफ-साफ कहते हैं कि ‘सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहम त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्षयष्यामि मा शुचः।’ अर्थात सभी धर्मो को छोड़कर तू एक मेरी शरण में आ। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा और डर मत। बॉस यद्यपि ऐसी घोषणा नहीं करता तथापि अपने कार्यकलापों से मैसेज यही देता है कि तू मेरी शरण में आ। मैं तुझे सारे अपराधों से मुक्त कर दूँगा और अभयदान दूँगा सो अलग। चाहे जितने भी गलत काम किए हों, परंतु व्यक्ति यदि दाएं बाएं सब छोड़कर एक मात्र प्रभु (बॉस) की शरण में अनन्य भाव से चला जाए, तो फिर बॉस उसे निराश नहीं करते। करें भी कैसे हमारे गोस्वामी जी बहुत पहले ही नीति निर्धारित कर गए हैं -

शरणागत को जे तजहि निज अनहित अनुमानि

ते नर पाँवर पापमय तिनहिं बिलोकत हानि।



सो चाटुकारिता का मार्ग सर्वथा निरापद और अचूक है। बच्चन जी की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियाँ है -‘अलग अलग पथ सब बतलाते पर मैं यह बतलाता हूँ - राह पकड़ तू एक चला जा पा जाएगा मधुशाला। वह एक राह कौन सी है इसका खुलासा बच्चन जी नहीं करते। हो न हो वे चाटुकारिता की राह की ही बात कर रहे हों, क्योंकि मधुशाला यानी कि अभीष्ट सिद्धि का इससे अधिक अचूक मार्ग और भला कौन सा होगा।



कुल मिलाकर चाटुकारिता एक ऐसा मार्ग है जिस पर हम अगर कायदे से चल सकें, तो सहज ही लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। तमाम बातों में यह भक्ति मार्ग की तरह है, तो कुछ बातों में यह ज्ञान मार्ग की तरह भी है। जैसे ज्ञान का पंथ कृपाण की धार की तरह होता है और उस पर बहुत सावधानी से चलना होता है, वैसे ही चाटुकारिता के पथ पर भी बहुत कौशल वाले ही चल पाते हैं नहीं तो "परत खगेस होइ नहिं बारा "। कुछ लोगों में यह कौशल जन्मजात होता है, तो कुछ इसे अर्जित करते हैं। परंतु अर्जित करने वालों में कुछ लोग ही ऐसे होते हैं, जो जन्मजात वालों का मुकाबला कर पाएं। कुछ तो ऐसे होते हैं, जो तमाम प्रयास के बाद भी इसे अर्जित नहीं कर पाते और इस पर चलने की कोशिश करते ही अपना नुकसान करा बैठते हैं। ऐसे ही लोग अपनी हीनभावना के चलते चाटुकारों को हेयदृष्टि से देखते हैं, वरना जन्मजात इस प्रतिभा को बड़े जतन से तराश कर चाटुकारिता में सिद्धहस्त हुए व्यक्तियों की प्रतिभा और परिश्रम श्लाघनीय है, वंदनीय है।

Friday, August 13, 2010

निंदा जीवन का आधार

निंदा शब्द को बहुत खराब माना जाता है। हमारे वेद-शास्त्र भी निंदा की निंदा करते रहे हैं और आदमी को उससे दूर रहने की सीख देते रहें हैं। आधुनिक युग में भी शायद ही कोई निंदा को अच्छा बताए। आपकी नजर में अगर कोई ऐसा आदमी हो जो हमेशा सब की निंदा ही करता रहता हो, उससे भी यदि आप निंदा के विषय में बात करें, तो वह यही कहेगा कि किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। इस सब के बावजूद निंदा का रथ निरंतर आगे बढता रहा है। वैसे ही जैसे कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी निकल जाते हैं। इतनी लानत-मलानत के बावजूद यदि निंदा ने विश्व विजय किया हुआ है, तो उसका कोई तो कारण होना चाहिए।



कारण दरअसल यह है कि निंदा जीवन का आधार है। क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि आदमी जितना बोलता हैं उसमें से निंदा का कितना अंश होता है। ऐसे गणना करना शायद कठिन होगा। किसी दिन आप यह तय कर लीजिए कि आज हम किसी की निंदा नहीं करेंगे। बात करना मुश्किल हो जाएगा। किसी से क्या बात करेंगे । यही कि कैसे हो, क्या हाल हैं। एक लाइन में वह इसका उत्तर दे देगा। फिर आगे क्या बात करेंगे। बात को किसी न किसी तरह निंदा की ओर ले जाना ही होगा। अंतर बस इतना ही है कि सीधा-सादा आदमी तुरंत शुरू कर बैठेगा और ‘क्या हाल-चाल हैं’ के उत्तर में ही बोलने लगेगा अरे क्या बताएं हम तो शर्मा जी परेशान हैं और बस ....। थोड़ा समझदार आदमी होगा तो सीधी निंदा करने से बचेगा, हाल-चाल बहुत बढ़िया बताएगा फिर शर्मा जी के विषय में कोई अच्छी सी बात कहेगा, जैसे आज शर्मा जी के बच्चे का रिजल्ट आया। बहुत अच्छे मार्क्स आए हैं । पर दिलचस्पी मार्क्स में नहीं कहीं और है। वह जानता है कि सामने वाला शर्मा जी से चिड़ा बैठा है और उनकी बढ़ाई करते ही वह तिलमिला कर अपना निंदा अभियान शुरू कर देगा और फिर समझदार आदमी को बिना कुछ पाप किए ही निंदा रस प्राप्ति का परम पुरषार्थ सिद्ध हो जाएगा। चाहे काम की बात हो या मामूली गपशप, बात आगे बढेगी, तो किसी न किसी रूप में निंदा तक पहुँचेगी जरूर। कभी आप सतर्क होकर निंदा की बात आते ही विषय भी बदल सकते हैं किंतु इससे भी निंदा मरती नहीं, वह तो रक्तबीज की तरह बार-बार उठ खड़ी होती है। और इस तरह अधिकांश समय हम निंदा ही करते रहते हैं। इसलिए भी कि उसमें बड़ा रस आता है और इसलिए भी कि उसके बिना बड़ी दिक्कत होती है। अगर निंदा नहीं करेंगें, तो बातचीत के लिए कॉमन विषय नहीं मिलेगा और मिलेगा भी तो उस बातचीत में कोई मजा नहीं आएगा। आप किसी से मिलने जाएं और थोड़ी देर बातचीत के बाद घुमाफिर कर ही सही किसी की निंदा का प्रसंग न चले, तो अंदर कुछ खुदर-बुदर सी होती रहती है - दोनों ही तरफ - मेहमान को भी और मेजबान को भी। तो इस तरह अगर हम बहुत कड़े मानक अपनाते हुए निंदा को अपने जीवन से पूरी तरह बाहर कर दें, तो सत्तर फीसदी बातचीत कम हो जाएगी। और आदमी दिन भर में जितना बोलता है, उसमें से अगर सत्तर फीसदी बोलना कम कर दे तो पगला जाएगा, उससे रहा ही नहीं जाएगा, मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाएगा वह और अंततः उसका काम तमाम हो जाएगा। तो इस तरह निंदा के अभाव में जीवन ही नहीं रहेगा। इसलिए इस बात को स्वीकार करने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि निंदा जीवन का आधार है। इति सिद्धम्।



साथ साथ यह भी न भूलें कि निंदा का एक बड़ा योगदान आपस में आत्मीयता पैदा करना है। क्योकिं आत्मीयता तो दो ही तरह से पैदा होती है - साथ बैठकर खाने पीने से और साथ बैठकर निंदा करने से। इसलिए आइए भक्ति भाव से निंदा को प्रणाम करे डऔर निंदा की दुर्भावना प्रेरित निंदा को टाटा-बाय-बाय कहकर पाखंड से दूर रहें। प्रणाम सिर्फ निंदा को ही नहीं निंदक को भी करना चाहिए, क्योंकि महात्मा कबीर दास बहुत पहले कह गए है किं ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।’ मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था क्योंकि धर्म की पिनक में लोग अपने वास्तविक दुख-दर्द को भूले रहते हैं। जिस तरह धार्मिक प्रवचनकर्ता अपनी मधुर वाणी से दैहिक-दैविक-भौतिक तापों से त्रस्त जन-मानस को कुछ समय के लिए मधुर विश्रांति के एक भिन्न लोक में ले जाते हैं, उसी प्रकार निंदक-प्रवर अपनी वाणी से ईष्ष्यालुओं के मनस्ताप को हर लेता है। जिस तरह अच्छी कविता अथवा साहित्य में तन्मय होकर व्यक्ति कुछ देर के लिए अपने अस्तित्व को भूल जाता है, उसी प्रकार निंदक अपनी कला से सामने वाले को मात्र भावसत्ता में परिणत कर देता है। हर निंदक की अपनी पद्धति होती है, अपना कौशल होता है और इसलिए उनका अलग-अलग प्रभाव होता है। इस दृष्टि से देखें, तो निंदको का वर्गीकरण भी संभव है। यों तो निंदकों के कई प्रकार हो सकते हैं, तथापि मोटे तौर पर उन्हें निम्नलिखित तीन वर्गों में रखा जा सकता हैः



रिएक्टिव निंदक - इनके भीतर नैतिकता का कीड़ा कुलबुलाता रहता है। किसी के विषय में कुछ कहने का उनका भी दिल करता है पर यह नैतिकता का कीड़ा उनके मुख विवर पर सख्त पहरेदार की तरह खड़ा रहता है और उनके हृदय से निकले हुए मोतियों को उलटे पाँव वापस लौटा देता है और मुख से बाहर नहीं निकलने देता। निंदा रस का आवेग फिर जोर मारता है और बात मुँह तक आती है तभी फिर नैतिकता का पहरुआ उसे लौटा देता है। इस तरह वे कहूँ या न कहूँ का द्वंद्व जीवन भर झेलते रहते हैं और इसलिए वेः किसी नाटक में अंतःसंघर्ष युक्त पात्र की रचना के लिए अच्छी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। तथापि किसी ओर से आक्रमण होने पर या खतरा उत्पन्न होने पर अंततः वे अपने निंदा अस्त्र का इस्तेमाल कर ही डालते हैं।

प्रोएक्टिव निंदक - इन्हें निंदा करने के लिए किसी उकसावे की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि इनकी निंदा रिएक्टिव नहीं प्रोएक्टिव होती है। वे सदैव ही अपने निंदा अस्त्र को हाथ में लेकर विश्व विजय के अभियान पर निकले रहते हैं। उनके अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को जो भी रोकता है, ये निंदा अस्त्र से उसका सर कलम कर देते हैं। इनकी द्वारा की जाने वाली निंदा इतनी वेगमयी होती है कि आस पास के लोगों को भी अपने साथ सहज बहा ले जाती है। सामान्यतः आदमी निंदा करते करते कर जाता है किंतु बाद में उसे बड़ी आत्मग्लानि होती है कि नाहक ही दूसरों से किसी की बुराई की और उनकी नजरों में गिर गया। किंतु इन प्रोएक्टिव निंदकों के लिए बात एकदम उलटी होती है। उनके निंदायुक्त वचनों को सुनकर श्रोता भी निंदा किए बिना नहीं रह पाता और यदि रह जाता है तो बाद में उसे बड़ी आत्मग्लानि होती है कि कितना अभागा हूँ मैं कि निंदा के उस महापंडित द्वारा किए जा रहे यज्ञ मे डएक आहुति भी न दे सका और उनकी तथा अपनी नजरो में कितना गिर गया।



अनासक्त निंदक - ये लाभ-हानि, दुख सुख आदि से परे रहकर निंदा की उपासना करते हैं। इनके लिए किसी की निंदा करने के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि उस व्यक्ति ने इनका या समाज का कुछ बिगाड़ा हो।हर किसी की निंदा करने के बावजूद इनके हृदय में किसी के प्रति द्वेष नहीं होता। जहाँ तक निंदा का प्रसंग है, इनके हृहय में किसी के प्रति राग भी नहीं होता, क्योंकि राग या आसक्ति कर्तव्य से विमुख करता है, अतः निंदा रूपी कर्तव्य का पालन करने के लिए ये राग और द्वेष दोनों पर विजय पाकर शत्रु और मित्र दोनों की समभाव से निंदा करते हैं। किसी की मित्रता या किसी का उपकार इन्हें निंदा मार्ग से डिगा नहीं सकते। अनुकूल वातावरण मिलते ही अपने मित्र की निंदा में भी उसी प्रकार जुट जाते हैं, जैसे अपने शत्रु की निंदा में। इस सबके बावजूद ऐसे निंदक वंदनीय हैं क्योंकि इनके हृहय कमलपत्र की भाँति निर्विकार रहते हैं। निंदा के माध्यम से ये न तो कुछ हासिल करना चाहते हैं और न कुछ सिद्ध करना चाहते हैं। इनकी कला सिर्फ कला के लिए होती है, उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। ये फल की चिंता किए बिना निरंतर अपना कर्म करते रहते हैं। शत्रु-मित्र सबके प्रति समदृष्टि के कारण ये सबके प्रिय होते हैं। नीरस और बोझिल वातावरण में उनके आगमन मात्र से जिंदादिली का प्रादुर्भाव हो जाता है। उनके मुख कमल से निःसृत होने वाली वाग्धारा अनेकानेक तप्त हृदयों को शीतलता प्रदान करती है और किसी का कुछ न बिगाड़ पाने वाली दुखी और मुरझायी आत्माओं को निंदारस से सींचकर पुनः हरा-भरा कर देती है।



तथापि, यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि निंदको के उपर्युक्त प्रकारों को एक दूसरे से सर्वथा पृथक नहीं समझना चाहिए। ये प्रकार एक दूसरे को काटते-छूते हुए आगे बढ़ते हैं।

Saturday, August 7, 2010

सवाल का जवाब नहीं

सवाल का हमारी जिंदगी में बड़ा अहम रोल है। सवाल के जरिए ही हम अपनी जानकारी का विस्तार करते हैं । सवाल ही हमारी सोच और चिंतन को आधार देते हैं। जितने भी आविष्कार हुए हैं वे सब किसी न किसी सवाल के जवाब ही तो हैं। यों भी आधुनिक युग को प्रश्नाकुलता का युग कहा जाता है। जहाँ मध्यकाल में श्रद्धा और विश्वास जीवन के केंद्र में था वहीं आधुनिक काल में जीवन के केंद्र में प्रश्न या सवाल आ गया है क्योंकि आधुनिक जीवन वैज्ञानिकता और तर्कशीलता का युग है और तर्क सवाल के सहारे ही आगे बढ़ता है।



सवाल का प्रयोजन यों तो कुछ जानने की इच्छा समझा जाता है पर कुछ लोग ‘कुछ बताने की इच्छा’ से प्रेरित होकर सवाल करते हैं। सवाल के जरिए पहले वे लोगों की जानकारी की थाह लेते हैं फिर उन्हें बताते हैं कि सच्चाई कुछ और है। दरअसल सच्चाई कुछ भी हो, वे जो बताना चाहते हैं उसे बहुत देर तक पेट में रख पाना उनके लिए संभव नहीं होता और वे उसे अपने मुखारबिंद से निकालने के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे लोग आत्मनिर्भर होते हैं - कोई पूछे तब वे बताएं, इस पथ का अनुगमन करने पर उन्हें अपने आचरण में परनिर्भरता की बू आती है। अपने ही प्रश्नों से वे सामने वाले में खास तरह की जिज्ञासा जगाते हैं और अपने भीतर का सारा ज्ञान बवंडर दूसरे के ऊपर उलट देते हैं और लगे हाथों अपने रौब-रुतबे में श्रीवृद्धि भी कर लेते हैं। समझदार लोग भीड़ में अपने को महत्वपूर्ण बनाने के लिए इसी हथियार का इस्तेमाल करते हैं। हो न हो, रेलगाड़ी में सफर करते हुए आपका भी ऐसे लोगों से वास्ता पड़ा हो। सवाल का उद्देश्य किसी को कुछ न करने का निर्देश देना भी हो सकता है । जब कोई दमदार आदमी रौब से साथ किसी कमजोर आदमी से पूछता है कि यहाँ गड्ढा क्यों खोद रहे हो, तो वस्तुतः वह यही कह रहा होता है कि यहाँ गड्ढा मत खोदो। सवाल दूसरे की दुखती रग पर उँगली रखने का बड़ा उपयोगी साधन है। मसलन किसी का बच्चा परीक्षा में अच्छा न कर पाया हो और उससे पूछा जाए कि इस साल रिजल्ट कब आ रहा है, तो बड़े भोलेपन के साथ पूछा गया यह चतुर प्रश्न सामने वाले का मूड खराब करने का माद्दा रखता है। जिनके जीवन का चरम लक्ष्य ही दूसरों को आहत करना है वे इस साधन का प्रचुर प्रयोग करते पाए जाते हैं।



सवाल कोई लोकव्यवहार में इस्तेमाल होने वाली टेकनीक मात्र नहीं है। अच्छी अध्यापन शैली में भी सवाल को बड़ा महत्व दिया गया है। अध्यापक सीधे-सीधे विद्यार्थियों को विषय की जानकारी देने लगें, यह अच्छी शैली नहीं समझी जाती। इसके विपरीत पहले किसी सवाल के जरिए विद्यार्थियों में कौतूहल पैदा करें, उनको अपने दिमाग पर जोर डालने दें और फिर अगर जवाब मिल जाए, तो सवाल-जवाब का सिलसिला तब तक आगे बढाएं, जब तक कि उनसे जवाब देते न बने, और तब विषय को विस्तार से समझाएं। इससे रोचकता तो पैदा होती ही है, बात भी विद्यार्थियों के मनोमस्तिष्क में गहरे उतर जाती है क्योंकि उनकी जिज्ञासाएं जाग्रत होने के कारण उनकी ग्रहणशीलता बढ़ी हुई होती है।

कभी-कभी सवाल सवाल नहीं होते । देखने में तो वे बिलकुल सवाल जैसे लगते हैं, मगर वे न तो कुछ पूछ रहे होते हैं न पूछने का नाटक ही कर रहे होते हैं। वे तो मात्र कुछ कह रहे होते हैं, जिन्हें किसी जवाब की दरकार नहीं होती। किसी की वाहावाही करने के उद्देश्य से अकसर लोग कह देते हैं - ‘क्या बात है।’ अब सामने वाला अगर बुद्धि से पैदल हो और कहे कि कि ‘कोई बात नहीं है’ तो तारीफ करने वाला अपना सिर धुनने के अलावा और क्या कर सकता है। कुछ ऐसे भी प्रश्न होते हैं जिनके एक से ज्यादा उत्तर हो सकते हैं । यद्यपि पूछने वाले का आशय स्पष्ट होता है, तो भी कुछ लोग प्रश्न को अलग ही दिशा में ले जाते हैं। एक बार एक सज्जन ने अपने मित्र से पूछा - ‘भाभी जी कैसी हैं ?’, उत्तर मिला ‘सुंदर हैं।’



सवाल के जवाब भी कई प्रकार के होते हैं। सीधा जवाब सबसे सरल होता है, लेकिन आज की दुनिया के समझदार लोगों का अघोषित तौर पर मानना है कि ऐसा जवाब देने वाले व्यक्ति भी जीवन में सरल ही रह जाते हैं और दुनिया उनका कोई खास नोटिस नहीं लेती। मसलन आपको राह चलते कोई पूछे कि क्या प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार हुआ है और आप हाँ या ना में उत्तर दे दें तो उससे आपके प्रभाव का खास विस्तार नहीं होगा, पूछने वाला अच्छा महसूस नहीं करेगा, सो अलग। इसलिए तथाकथित समझादार लोग सीधे जवाब देने के बजाय जवाब में रोचकता का सन्रिवेश करने में यकीन रखते हैं। यह अलग बात है कि जिसे वे रोचकता समझते हैं उसे सामने वाला कुछ और भी समझ सकता है। एक बार ट्रेन में दो मित्र अपने शहर आगरा के बारे में बातचीत करते जा रहे थे। पास बैठे मुसाफिर ने बातचीत में शामिल होने की गरज से पूछा कि आगरा क्या मथुरा के पास पड़ता है ? तो मित्रों में से एक ने जवाब दिया - ‘अरे जनाब, बिलकुल पास, इतना पास कि आगरा से पत्थर फैकों तो मथुरा में खड़े आदमी का सिर बड़े मजे से फूट जाएगा।’ मुसाफिर ने बातचीत में शिरकत करने का विचार त्याग दिया। वैसे एक बात यह भी है कि सवाल का सीधा जवाब देने से सामने वाले का हौसला बढ़ता जाता है और वह आगे और सवाल पूछता जाता है। जैसे अगर आप कमेंट्री सुन रहे हों, और पास से निकलते हुए किसी आदमी ने स्कोर पूछा और आपने सहज प्रसन्नता के साथ बताया कि 225 रन, तो वह आगे पूछेगा कि कितने विकेट हुए, आपने कहा - चार। अब उसकी हिम्मत और बढी तो पूछेगा कौन-कौन आउट हुआ, किसी की सेंचुरी लगी क्या, विकेट किसे मिले..... वगैरह-वगैरह। इसलिए समझदार लोग पहले सवाल के जवाब में ही कहते हैं कि कमेंट्री आ रही है, सुन लीजिए।



कभी कभी लोग सवाल का जवाब भी सवाल से देते हैं। सयानों का मानना है कि अप्रिय सवालों का सामना करने के लिए ये सबसे बेहतर टेकनीक है। एक बार एक दारोगा जी से किसी ने पूछा कि आजकल पुलिस का वैसा रौब रुतबा नहीं रहा, लोग पुलिस से वैसे नहीं ड़रते जैसे पहले डरते थे, इसकी क्या वजह है? दारोगा जी ने वजह बताने के बजाय कहा कि आप हमको यह बताइए कि अगर लोग पुलिस से वैसे नहीं ड़रते जैसे पहले डरते थे, तो इसमें नुकसान किसका है? यह कहते वक्त दारोगा जी की भाव भंगिमा ऐसी थी कि सामने वाला एक ही उत्तर दे सकता था और वही उसने दिया - "नुकसान तो लोगों का ही है।" दारोगा जी ने कहा - "तो फिर।" और इस तरह सवाल के जवाब में सवाल उछाल कर उन्होने मूल सवाल को बेमानी बना दिया। वैसे कुछ लोग अप्रिय सवालों के भँवर में भी शांत और अविचलित भाव से मुस्कराते रह कर सामने वाले को निरस्त्र कर देते हैं।



बहरहाल सवाल तलवार भी है और सवाल ढाल भी है। सवाल ज्ञान कोश की कुंजी भी है और सवाल बेवकूफियों का वाहन भी है और भी सवाल न जाने क्या क्या है। सवाल के स्वरूप को समझने के लिए असल सवाल यह है कि हमारी रुचि क्या है, हमारी क्षमता क्या है, हमारा जीवनदर्शन क्या है और हम में सत-रज-तम का क्या अनुपात है।

दादा जी

ननिहाल से अपने गाँव तक आने के लिए ननिहाल से कोई एक कोस पैदल चलना पड़ता था। तब बस मिलती थी। मैं पैदल रास्ते में दादा जी की उँगली पकड़ कर चल रहा था। सर्दियों के दिन थे। खेतों में पानी लगाया जा रहा था। उनकी मेड़ों पर हम अपना रास्ता तय कर रहे थे। अचानक मेरा पैर मेड़ से फिसल कर पानी भरे खेत में चला गया। मेरे जूते गीली मिट्टी में सन गए। मैं रोने लगा। दादा जी ने कोई दिलासा देने के बजाय पहले तो दो करारी चपत मेरे गाल पर लगाई , बाद में जूते धुलवाए। दादा जी की यही सबसे पुरानी स्मृति मेरे दिमाग में है। दादा जी ननिहाल कब आए थे हम कैसे ननिहाल से विदा हुए यह सब मुझे कुछ याद नहीं। पर हां, दादा जी की जो मान्यताएं थी उनके आधार पर मैं कह सकता हूं कि मैं माँ के साथ ननिहाल गया होऊँगा। माँ का किसी वजह से जल्दी लौटना संभव न हो पाया होगा। तो दादा जी मुझे लिवा लाए होंगे, ताकि मैं कहीं नाना-नानी के लाड़ प्यार में बिगड़ न जाऊँ। दादा जी का मानना था कि बहू को मायके में ज्यादा से ज्यादा साल में दस-पंद्रह दिन रहना चाहिए। शादी के बाद ससुराल ही उसका घर होता है और दूसरे, बच्चे भी ननिहाल में नाना-नानी के लाड़ प्यार में बिगड़ जाते हैं। उनकी यह मान्यता सिर्फ बहुओं के लिए ही नही बल्कि उनकी बेटी, यानी कि हमारी बुआ पर भी लागू होती थी। बुआ जब भी हमारे यहाँ आतीं, जल्दी ही वापस चली जातीं। अगर कभी ज्यादा समय हो जाता तो दादा जी खुद उनसे पूछ लेते कब जाओगी। कोई बुलाने आ रहा है या हम भिजवा दें। इस तरह दादा जी की कुछ कड़ी मान्यताएं थी और दूसरो को वे अच्छी लगती हैं या नहीं इससे उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। इसी तरह बाल छोटे रखने चाहिए इस बात पर वे अडिग रहते। हम लोग जब होस्टल में रहने चले गए, तब भी छुट्टियों में गाँव आने से पहले बाल छोटे करना नही भूलते थे, ताकि दादा जी का कोपभाजन होने से बचा जा सके। बाल छोटे रखने की नसीहत वे रिश्तेदारों और उनके बच्चों को भी देना नहीं भूलते। सुबह-सुबह सबको नहा लेना चाहिए, यह भी उनकी पक्की मान्यता था। खुद जल्दी नहाने के बाद वे रिश्तेदार को भी बोलते- नहा डालो, दलिद्दर दूर हो। सुबह जल्दी उठाने का भी उन्हें बड़ा चाव था। बाहर बारिश हो रही हो तब भी वे सबको सुबह जल्दी उठा देते। बच्चे आसानी से न उठते। मैं और मेरे हमउम्र चचेरे भाइयों ने नोट किया था कि दादा जी सुबह उठाने के लिए त्रिस्तरीय पद्धति अपनाते थे। पहले बड़े प्यार से कहते बेटा उठ बैठो। इतने पर हम लोग कहाँ उठते, सो दादा जी दूसरे चरण पर पहुंच जाते और थोड़े रूखेपन से कहते उठ जाओ अब। इतने पर हम लोग कुलबुला कर रह जाते, तो वे अंतिम चरण पर पहुंच जाते और बड़ी जोर से तथा बड़े क्रोध तथा झटके से कहते - उठ। उस उठ का झटका इतना विकट होता कि हम उस झटके के साथ ही उठकर सीधे बैठ जाते, नींद चाहे बाद में खुलती रहती। घर को हो या पड़ोस का, सुबह जल्दी उठे, छोटे बाल रखे, बिना प्रेस किए कपड़े पहने, ऊधम न मचाए, शांति से बैठा रहे, वह बच्चा अच्छा समझा जाता। अगर कोई बड़े बाल रखे और प्रेस किए हुए कपड़े पहने घूमें और जिंदादिली से हँसता खिलखिलाता रहे, तो दादा जी बारबार भविष्यवाणी करते रहते कि इसने जुल्फे रख ली हैं और टिपटॉप बना घूमता रहता है, यह शर्तिया फेल हो जाएगा, क्योंकि इसका ध्यान पढ़ाई लिखाई में नहीं जुल्फे सँवारने में ही लगा रहता है।



दादा जी को मट्ठा से बड़ा प्यार था। सुबह-सुबह गुड़ से मट्ठा पीते और चाहते कि और लोग भी ऐसा करें फिर वे खेत से बथुआ लाते और उसका रायता बनवाते। खाने के साथ रायता न हो तो उन्हे खाना अधूरा सा लगता। गाँव में मट्ठा मांगने का खूब चलन था, अब भी है। आसपास के जिन लोगों के यहाँ दूध-मट्ठा नहीं होता है, वे दूसरों के यहां से मट्ठा माँग ले जाते। पर दादा जी को यह नागवार गुजरता, उन्हें लगता कि सुबह-सुबह ये मट्ठा माँग ले जाएंगे, तो घर के सब लोगों को पर्याप्त मट्ठा और रायता कैसे मिलेगा। सो वे मट्ठा मांगने आने वाले बच्चों और महिलाओं को कोई बहाना बताकर द्वार से ही लोटा देते। इसलिए वे लोग पहले किसी तरह पता कर लेते कि दादा जी घर पर हैं कि नहीं। जब दादा जी खेत पर चले जाते या किसी काम से इधर-उधर निकल जाते, तभी पड़ोस की महिलाएं चुपके से आकर दादी से मट्ठा ले जातीं। दादा जी का यह मट्ठा प्रेम अंत तक बरकरार रहा। उनके स्वर्गवास से कुछ ही वर्ष पहले जब एक बार मैं गाँव गया, तो वे अपने हाल चाल सुनाते हुए कहने लगे कि अभी कुछ साल और जी लेते पर सत्तन की बहू नहीं जीने देगी। रोज सुबह-सुबह मट्ठा माँगने चल देती है। सत्तन हमारा पड़ोसी है। दादा जी की बड़ी इच्छा रहती कि हम लोग उनके पैर दबाएं। हॉस्टल से जब भी गाँव जाते दादा जी के पैर जरूर दबाते। जब दादा जी बहुत वृद्ध हो गए, तो उनके पैरों मे माँस कम हड्डियां अधिक थी और पैर दबाने से उनको शायद ही कोई आराम मिलता हो, पर तब भी अगर गाँव जाने पर एक- दो दिन तक हम उनके पैर न दबाते, तो वे शिकायत करते। शायद तब उन्हें पैर दबाने से मिलने वाले सुख से ज्यादा अपने मन की बाते करने के लिए हमारा अकेले में उनके निकट बैठना अभीष्ट होता था। जब मेरा बेटा दो-तीन साल को हो गया, तो मैने उससे कहा कि वह बूढ़े दादा जी के पैर दबाया करे, तो वे उसे कहानी सुनाएंगे। उसे भी अपने दादा जी के बजाय बूढ़े दादा जी के पैर दबाने में ज्यादा मन लगता क्योंकि उसके दादा जी तो पैर दबाए जाने के दौरान कभी-कभी पढ़ाई की बात भी कर लेते पर मेरे दादा जी सिर्फ कहानी सुनाते।



हम लोगों की पढ़ाई कायदे से चलनी चाहिए इसके लिए दादा जी के पास कोई प्रोत्साहन तो नहीं था पर दंड विधान जरूर था। जब भी किसी की पढ़ाई गड़बड़ाती या परीक्षा में अच्छे अंक न आते तो दादा जी तुरंत कहते इसका घेउ बंद करो। घी को घेउ कहना दादा जी का निजी प्रयोग था या फिर उनकी पीढी के लोग इसे घेउ कहते रहें होंगे। इसी तरह रायते को गाँव में भी रायता ही कहा जाता पर दादा जी उसे रौतो कहते थे।



दादा जी बहुत स्पष्टवादी थे। उनके स्पष्टवादिता और खरी बात कहने की आदत बहुत थी। वह साफ बात कहते, उसका पालन करते और दूसरों से भी वैसी ही अपेक्षा रखते । एक बार दादा जी एक शादी के मध्यस्थ थे। दोनों ही पक्ष हमारे दूर के रिश्ते-कनैक्शन में आते थे। दादा जी ही मध्यस्थ नहीं थे, हमारा गाँव भी मध्यस्थ, अर्थात मध्य में स्थित था, यानी लड़के वालों के यहाँ से लड़की वालों के यहाँ जाना हो तो बस हमारे गाँव से होकर ही गुजरती थी। खैर, शादी की बातचीत के दौरान दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि बारात में पचास आदमी ही आएंगे। दादा जी ने बात को ज्यादा ही स्पष्ट कर डाला और कहा कि अगर 51 वाँ आदमी आया तो उसे हम अपने गाँव से वापस कर देंगे। लड़के पक्ष के लोग दादा जी को दउआ (ताऊ जी का बिगड़ा हुआ रूप) कहते थे और वे दउआ के खरेपन से इतने परिचित थे कि सचमुच बारात में 50 भी नहीं 50 से भी दो-एक कम आदमी ले जाए गए।



दादा जी का भजन पूजा में ज्यादा मन नहीं रमता था। कभी कभी सर्दियों में नहाने के बाद धूप में आसन डाल कर पूजा करने बैठते और पांच मिनट से भी कम समय कुछ थोड़ा बुदबुदाते और पूजा समाप्त हो जाती। घर के मंदिर में बैठकर व्यवस्थित ढंग से दादा जी को पूजा करते हुए हमने नहीं देखा। हाँ दीपावली और होली पर वे घर के मालिक के तौर पर पूरे विधि विधान पूर्वक पूजा करते। अपने जीवन के अंतिम दिनों मे भी जब वे बहुत कमजोर हो गए थे. तब भी वे दीपावली पर उन्होंने ही पूजा की थी। कुल मिलाकर उनकी छवि जो मेरे दिमाग में बनी थी वह यह कि वे धार्मिक थे, पर कर्मकांड में ज्यादा आस्था नहीं थी। अंधविश्वास से तो कोसो दूर थे, वरना उनकी पीढ़ी के लोगों को जरा-जरा सी बात पर दादा जीओं-फकीरों और झाड़-फूँक के चक्कर में पड़ते देर न लगती थी। स्थानीय साधु-फकीर दादा जी के रहते हमारे घर के आसपास भी न फटकते। दादी भोली-भाली थी, सो दादा जी इस बात का पूरा ध्यान रखते कि कहीं ये चालाक लोग दादी से कुछ ठग न ले जाएं।



जब भी कहीं से कोई चिट्ठी आती तो दादा जी इधर लाओ इधर लाओ कहते हुए सबसे पहले उसे पढ़ते। हालांकि पढ़ने में उन्हें अपनी आँखें थोड़ी मिचमिचानी पड़ती परंतु उन्होंने कभी चश्मा नहीं लगाया। जब हमारे ताऊ जी और पिता जी को चश्मा लग गया था, तब भी दादा जी बड़े मजे से बिना चश्मे के पढ़ सकते थे। चिट्ठी को वे खत कहते और जब भी डाकिया हमारे घर के आस-पास से गुजरता तो दादा जी जरूर पूछते कि हमारा कोई खत तो नहीं है। यह बात दीगर है कि इसका उत्तर ना ही होता क्योंकि अगर चिट्ठी रहती थी, तो डाकिया पहले ही दे देता था। प्रश्न पूछने की नौबत आने का मतलब था कि चिट्ठी नहीं है। फिर भी पूछने की रवायत जारी रहती । शायद ज्यादातर लोग ऐसा ही करते हैं।



दादा जी का अपने बेटों पर सख्त नियंत्रण था। हमारे ताऊजी और पिताजी दोनों ही अध्यापक थे और उनकी तनख्वाह एक ही दिन मिलती थी। सारी तनख्वाह लाकर दादा जी को देना उनका पुनीत कर्तव्य था और उसे खर्च करने का अधिकार सिर्फ दादा जी का था। एक बार दोनों भाइयों ने आपस में तय किया कि तनख्वाह में से बीस-बीस रुपये निकाल लिए जाएँ और शेष रुपये दादा जी को दे दिए जाएं, जिससे कुछ पैसे अपने पास भी रहें। नियत तारीख को जब बीस-बीस रुपए निकाल कर बाकी की तनख्वाह दादा जी को दी, तो दादा जी गिनने के बाद थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे। फिर दोनों लोगों को तनख्वाह लौटाते हुए बोले - लो रख लो, जब तुमने पहले ही अधकट कर लिया तो अब हम इसका क्या करेगे। दोनों भाइयों ने निकाले हुए बीस-बीस रुपये चुपचाप दादा जी को सौंप दिए।



दादा जी को इस बात की बड़ी चाह रहती कि लोग यह समझे कि वे काफी सस्ती सब्जी खरीदते हैं। सब्जी वे खुद खऱीदते औऱ चाहते कि सब्जी उनसे ही खरीदवाई जाए। केवल यह दिखाने के लिए कि वे बहुत सस्ती सब्जी खरीदते हैं, अकसर जितने रुपये में सब्जी खरीदते, उससे कुछ कम करके घर पर बताते। जब कोई सब्जी सस्ती होती तो दादा जी उसका गुणगान करते, लेकिन अगर वही सब्जी महँगी हो जाती तो वे उसकी तुलना भूसा से करने लगते।



जब मेरी तैनाती घर से बहुत दूर हो गई, तो दादा जी ने घर में कह रखा था, कि जब कभी भी उनकी मृत्यु हो, मेरे आने के बाद ही उनका दाह संस्कार किया जाए। ऊपर वाले की कृपा रही और जब उनका अंत समय निकट आया तब मैं घर से बहुत ज्यादा दूर नहीं था. उनकी तवीयत बिगड़ती देख रात में मुझे फोन कर दिया गया था। मैं रात में चल पड़ा और जब उनके पास पहुँचा तब वे अर्द्ध चेतन से थे। उन्हें मेरे आने की सूचना दी गई। वे कुछ नहीं बोले। सूचना दोहराई गई, तो बोले हाँ, हाँ सुन लिया। मैंने उनके शब्दों में वही पुराना स्नेह खोजने की कोशिश की। पर वह उनमें नही था। निश्चय ही यह अर्ध-चेतनता की स्थिति का परिणाम था। अगले दिन सुबह उनकी तबीयत थोड़ी सुधरी सी लग रही थी पर जल्दी ही उनकी हालत फिर गिरने लगी। दोपहर होते होते हम सब और पड़ोस के लोग उनके पास जमा थे। उनकी साँस बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। उनका बोलना बंद हो गया था। फिर उनकी दोनों आखों की कोरों से धीरे धीरे आँसू बहने लगे। पास बैठी पड़ोस की एक बुजुर्ग महिला ने कहा अब जा रहे हैं, हंस रो रहा है। अपनों से हमेशा के लिए विदा लेना आसान नहीं होता।



दादा जी अब नहीं है परंतु उनका व्यक्तित्व मेरी कल्पना में अभी भी मूर्तिमान है। लंबा कद मजबूत शरीर, गौरा रंग, छोटी आँखे और कठोर चेहरा। वह सब के लिए कठोर ही थे पर जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मेरे प्रति उनका स्नेह भी अनुदिन बढ़ता गया। उनके जाने के बाद भी लगता है जैसे मेरे प्रति उनका स्नेह बढ़ने का क्रम अब भी जारी है।

Thursday, August 5, 2010

गौतम बुद्ध - अकेले एक प्रबुद्ध मानव

महात्मा बुद्ध कोई जन्मना बुद्ध नहीं थे। वे राजकुमार के रूप में पैदा हुए थे - राजकुमार सिद्धार्थ गौतम। हर सुख सुविधा उनके एक इशारे पर उन्हें उपलब्ध थी। पर उनका मन उसमें नहीं रमा। बाहर की दुनिया उन्हें बेचैन करते रही। उन्हें बीमार व्यक्ति को देखा, किसी वृद्ध को देखा और किसी मृत व्यक्ति को देखा। ये तीन घटनाएं उन्हें यह बोध कराने के लिए काफी थीं कि संसार दुखमय है। जीवन में कहीं सुख नहीं है, जीवन में कोई अर्थ नहीं है। वे सत्य को खोज में निकल पड़े। चुपचाप रात में महल, पत्नी और पुत्र को छोड़ दिया। उनकी यह खोज वर्षों चलती रही। अनेक गुरुओं के पास भटके। उन्होंने वह सब कुछ किया, जो लोगों ने उन्हें करने को कहा- एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहे, उपवास किए और अनेक मार्गों का अनुसरण किया। बीच में कभी-कभी संसारी होने की इच्छा भी जागी। कुछ एक बार काम उनके निकट आया और बोला - छोड़ो भी सत्य की खोज। चलो संसार में लौट चलो। पर उस महावीर ने अपने अतुल पराक्रम से उसे उसी क्षण परास्त कर दिया। उन्होंने कहा – “अज्ञानपूर्वक केवल खा-पीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है, पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्ध क्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है।” स्वार्थपूर्ण व्यक्तिभाव से चिपके रहने के खोखलेपन के महान सत्य का अनुभव करने के लिए उन्हें आत्मानुसंधान में अनेक वर्ष बिताने पड़े। इतने महान नि:स्वार्थ अथक कर्मी को भी समस्त रहस्य जानने के लिए कितने विकट संघर्ष करने पड़े। तब एक लंबी साधना के बाद पूर्णिमा की रात को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और वे बुद्ध हो गए। बुद्ध एक अवस्था का सूचक है। इसका अर्थ है – अनंत आकाश के समान अनंत ज्ञान।

गौतम बुद्ध निरंतर यही कहते रहे कि वे पच्चीसवें बुद्ध थे। उनके पहले के 24 बुद्धों का इतिहास को कोई ज्ञान नहीं, परंतु हमारे ऐतिहासिक बुद्ध ने उन बुद्धों द्वारा डाली हुई भित्ति पर ही अपने धर्मप्रासाद का निर्माण किया है। उदाहरणार्थ, जब किसी ने उनसे धर्म का मार्ग सरल भाषा में समझाने को कहा, तो उन्होंने बताया -

सब्ब पापस्स अकरणं, कुसलस्स उप संपदा।

सचित्त परियोपदनं, एतं बुद्धानसासनं।

सभी प्रकार के पापों को न करना, कुशल कर्मों का संपादन करना और अपने चित्त को निर्मल करना – यही समस्त बुद्धों की शिक्षा है। अपनी वाणी और शरीर से दूसरों की हानि करना ही पाप है। जिस कार्य से दूसरों को सुख पहुंचता हो, शांति मिलती हो, उनका मंगल होता हो, वही पुण्य है। और तीसरी बात कही चित्त की निर्मलता की। चित्त मैला होता है, तभी शरीर और वाणी से दुष्कर्म होते हैं। निर्मल चित्त व्यक्ति दूसरों को हानि नहीं पहुंचा सकता, वह तो कल्याण ही करेगा। चित्त की इस अवस्था तक पहुँचने के लिए बुद्ध ने विपश्यना की पद्धति दी।

वे अपनी निजी मुक्ति के लिए वन में तप करने नहीं गए थे। उनकी चिंता यही थी कि दुनिया जली जा रही है और उसे बचाने का कोई उपाय मुझे खोज निकालना चाहिए। उनके समस्त जीवन की .यही चिंता थी कि दुनिया में इतना दुख क्यों हैं? बुद्ध ने चार सत्यों का अन्वेषण किया ।पहला सत्य – संसार दुखमय है। दूसरा सत्य – दुख का कारण है। तीसरा सत्य – कारण का निवारण है और चौथा सत्य दुख से निकलने का मार्ग है। दुख का कारण है दूसरों से ऊँचा चढ़ जाने की हमारी इच्छा और हमारी स्वार्थपरता। हम अपने लिए वस्तुओं की कामना करते हैं। छुटकारा पाने का मार्ग है स्व का परित्याग करना। स्व की सत्ता नहीं है। प्रपंचात्मक जगत की है। जन्म मरण चक्र के पीछे आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है। बौद्ध दर्शन में ‘idea’ या ‘Thought’ आदि शब्दों के लिए विज्ञान शब्द का प्रयोग किया गया है। एक विज्ञान उत्तरोत्तर दूसरे विज्ञान का अनुगमन करता रहता है। प्रत्येक विज्ञान एक ही क्षण में उदय होता है, व्यय हो जाता है। शरीर सारे समय परिवर्तित होता रहता है. इसी प्रकार मन और चेतना भी। इसलिए स्व एक भ्रम है। सारी स्वार्थपरता इस स्व को पकड़े रहने से उत्पन्न होती है। यदि हम यह जान लें कि स्व नहीं है, तो हम सुखी होंगे और दूसरों को भी सुखी बनाएंगे।

बुद्ध के बताए मार्ग पर चलकर दुख से निवृत्ति हासिल की जा सकती है। यह मार्ग है - शील समाधि एवं प्रज्ञा का मार्ग। इसमें शील के तीन अंग, समाधि के तीन अंग और प्रज्ञा के दो अंग है। इस प्रकार यह आठ अंगो वाला मार्ग है- अष्टांग मार्ग। शील का अर्थ है सदाचार –इसके अंतर्गत तीन अंग आते हैं – सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मांत और सम्यक् आजीविका। सम्यक् वाणी का अर्थ है कि वाणी शुद्ध, निर्मल और पवित्र हो। जो झूठ बोलकर ठगता है, कड़वी बात बोलकर जी दुखाता है, चुगली करके लोगों के संबंध तुड़वाता है, फिजूल बात करके समय बर्बाद करता है, वह वाणी को मैला करता है। वाणी के इन चार प्रकार के मैलों से बचें, तो वाणी अपने आप शुद्ध, पवित्र और निर्मल हो जाएगी। सम्यक् कर्मांत का अर्थ है कि शरीर के कर्म उचित हों। इसे कर्मांत इसलिए कहा क्योंकि हर कर्म की शुरुआत मन से होती है, फिर वह वाणी पर उतरता है और अंत में शरीर पर उतरता है। शरीर का हर कर्म सम्यक् अर्थात उचित यानी शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। किसी प्राणी की हत्या करना, किसी दूसरे की वस्तु को चुराना, व्यभिचार करना और मादक पदार्थों का सेवन करना - शरीर के इन चार दुष्कर्मों से बच सकें, तो शरीर के कर्म अपने आप निर्मल हो जाएंगे। शील का तीसरा अंग है सम्यक् आजीविका। सम्यक् आजीविका का अर्थ है हम अपने जीवन यापन के लिए जो साधन चुनें, उसमें अन्य किसी की हानि न हो और जिससे हमारी आय होती है उसे हम धोखा न दें।

भगवान बुद्ध शील सदाचार के उपदेशों तक ही आकर नहीं रुक जाते, क्योंकि ये उपदेशात्मक बातें बुद्धि कॆ स्तर पर तो खूब समझ में आती हैं, किंतु जब करने का समय आता है तो दुष्कर्म हो ही जाता है क्योंकि मन वश में नहीं रहता। इसलिए बुद्ध मन को वश में करने का उपाय भी बताते हैं और वह है समाधि। इसके तीन अंग हैं – सम्मा वायामो, सम्मा सति, सम्मा समाधि। सम्मा वायामो का अर्थ है सम्यक् व्यायाम। जिस प्रकार शरीर के रोग और विकार दूर करने के लिए उचित व्यायाम आवश्यक है, उसी प्रकार मन के विकार और मन की दुर्बलता को दूर करने के लिए मन के व्यायाम आवश्यक हैं। मन का व्यायाम क्या है? मन का निरीक्षण कर यह देखें कि मन में यह बुराई है, यह खराबी है, तो उसे निकालने का प्रयास करें। फिर निरीक्षण कर देखें कि मन में कोई बुराई नहीं है, तो मन के दरवाजे बंद कर लें और प्रयत्न करें कि जो बुराई मन में नहीं है वह आने न पाए। फिर देखें कि मन में यह अच्छाई है, यह सद्गुण है, तो कोशिश करें कि वे कायम रहें, उनका संवर्द्धन हो। फिर मन को देखें और जब यह अनुभव करें कि मन में अमुक सद्गुण तो हैं ही नहीं, तो प्रयास करें कि वे सद्घुण हासिल हों। बस यही चारो मन के व्यायाम हैं। समाधि का अगला अंग है सम्मा सति अर्थात् सम्यक् स्मृति। आज स्मृति का अर्थ है याददाश्त, स्मरण-शक्ति। किंतु बुद्ध के समय मे स्मृति का अर्थ था जागरूकता, सावधानी। जागरूकता वर्तमान क्षण की हुआ करती है, बीते हुए क्षणों के प्रति कोई सावधान नहीं रह सकता। हम वर्तमान क्षण के प्रति जितने जितने सजग हैं, उतनी-उतनी सम्यक् स्मृति है। मन अपनी पुरानी आदत के अनुसार भागता रहता है, कभी भूत में तो कभी भविष्य में। हम कोशिश कर उसे वर्तमान पर लाएं और जागरूक होकर वर्तमान की सच्चाई को देखें यही सम्यक् स्मृति है। समाधि का तीसरा अंग है सम्मा समाधि अर्थात् सम्यक् समाधि। समाधि का अर्थ है चित्त की एकाग्रता। परंतु चित्त को एकाग्र करते समय उसे राग द्वेष और मोह विहीन रखना है। हम किसी के प्रेम में पूरा तरह एकाग्र हो सकते हैं, किसी की निंदा में पूरी तरह एकाग्र हो सकते हैं, किसी के शोक में पूरी तरह एकाग्र हो सकते हैं – ऐसी एकाग्रता समाधि नहीं है, क्योंकि यह राग, द्वेष और मोह से ग्रस्त है । हमारा चित्त एकाग्र हो, वर्तमान की सच्चाई के प्रति सतत जागरूक हो और राग द्वेष मोह विहीन हो – तभी वह सम्यक् समाधि कहलाएगी।

धर्म के शेष दो अंग प्रज्ञा के अंतर्गत आते हैं – सम्मा संकप्पो और सम्मा दिट्ठि। सम्मा संकल्प अर्थात् सम्यक् संकल्प। हमारे मन में जो विचार चलते हैं, जो संकल्प विकल्प चलते हैं वे सम्यक् होने चाहिए, सही होने चाहिए। विचार और संकल्प-विकल्प रागरंजित, द्वेष-दूषित और मोह विमूढ़ित न हों यही सम्यक् संकल्प है। प्रज्ञा का दूसरा अंग है सम्मा दिट्ठि अर्थात् सम्यक् दृष्टि। जो वस्तु, जो बात जैसी है, उसे वैसा ही उसके स्वाभाविक गुण-धर्म में देखें, किसी वाद, सिद्धांत, मान्यता या पूर्वाग्रह के चश्मे से नहीं। यह सम्यक् दृष्टि है। बुद्ध ने प्रज्ञा के तीन सोपान बताए- श्रुतमयी प्रज्ञा, चिंतनमयी प्रज्ञा और भावनामयी प्रज्ञा। श्रुतमयी प्रज्ञा का अर्थ है जो ज्ञान हमने सुन लिया अथवा ग्रंथों में पढ़ लिया। यह बहुत उपयोगी और लाभप्रद है, किंतु इस ज्ञान से मार्गदर्शन और प्रेरणा लेकर आगे कदम बढ़ाना होगा, अन्यथा केवल सुना अथवा पढ़ा हुआ ज्ञान अंधश्रद्धा का रूप ले लेता है। इसलिए अगला सोपान है चिंतनमयी प्रज्ञा। जो कुछ सुना है, पढ़ा है, उस पर चिंतन मनन करके देखना है कि क्या उचित है क्या न्यायसंगत है क्या तर्कसंगत है आदि। तब ही उसे स्वीकार करना है। परंतु यही पर रुक गए तो स्थिति और भी खतरनाक हो सकती है। सिर पर यह दंभ सवार हो सकता है कि मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया, सारे ग्रंथ पढ़ लिए, उन्हें तर्क वितर्क से समझ लिया, मैं बड़ा प्रज्ञावान हो गया। अत: श्रुतमयी और चिंतनमयी प्रज्ञा से लाभान्वित होकर भावनामयी प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश करना होता है। महापुरुषों ने जो बात कही, पुस्तकों में जो पढ़ा और चिंतन मनन करके जो समझा उसे अपनी अनुभूतियों पर, अनुभव पर उतारना होता है और उन अनुभूतियों, अनुभवों से जो प्रज्ञा बढ़ती है वही भावनामयी प्रज्ञा है। वही सच्चे अर्थों में कल्याणकारी प्रज्ञा है। उसी से मनोबल सधता है और मन की गाँठे खुलती हैं।

बुद्ध ने बाहर की दुनिया को और उसकी सच्चाइयों को खूब देखा। फिर अंतरमुखी होकर अंतर की सच्चाइयों को देखने लगे। इस शरीर की क्या सच्चाई है – हड्डी है, मांस है, रक्त है, त्वचा है आदि-आदि। फिर और गहरे देखा तो पाया कि ये सब नन्हे नन्हे कणों से बने हैं, जिन्हें उन्होंने अष्टकलाप कहा। परमाणु से भी छोटे ये अष्टकलाप लगातार उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, उदय होते हैं, व्यय होते हैं, यानी ये भी ठोस नहीं है, सब तरंगे ही तरंगे हैं। पलक झपकने भर में ये अष्टकलाप शत सहस्र कोटि बार उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं। अनुभूतियों के स्तर पर जब यह बात स्पष्ट होती है तो अनित्य बोध जागता है। राग टूटते हैं, द्वेष दूर होते हैं मोह दूर होते हैं, व्याकुलता दूर होती और जब अनित्य बोध पुष्ट होने लगता है तो प्रज्ञा का दूसरा अंग अनात्मबोध जागता है। जब कुछ स्थायी ही नहीं है जब मेरा शरीर तक निरंतर उदय व्यय हो रहा है तो फिर क्या मैं और क्या मेरा यही अनात्मबोध है। अनित्य बोध और अनात्म बोध के साथ प्रज्ञा के तीसरा अंग - दुख का वास्तविक बोध होने लगता है। जो प्रतिक्षण भंग हो रहा है, बदल रहा है, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं, जो मैं नहीं, जो मेरा नहीं उसके प्रति जितनी- जितनी आसक्ति है, उतना ही दुख है। यह बात अनुभूतियों से समझ में आती है और अनुभूतियों से ही अनित्य, अनात्म और दुख - ये तीन प्रज्ञाएं भीतर से अपने आप जागती हैं।

बुद्ध भारत के इतिहास में एक रोचक मोड़ पर पैदा हुए थे। यह एक ऐसा समय था, जब भारत समृद्ध था और दार्शनिक चिंतन की महान ऊंचाइयों तक पहुंचा हुआ था। एक अत्यंत बौद्धिक समाज में लोग सोचते हैं कि वे सब कुछ जानते हैं, पर होता इसके विपरीत है। भारत में भी यही स्थिति थी, इसलिए बुद्ध ने धर्म के अन्यान्य पक्षों को कुछ समय के लिए दूर रखकर केवल दुखों से पीड़ित संसार की सहायता करने के कार्य को प्राथमिकता दी। बुद्ध ने कहा – मेरे पास तुम्हारे लिए एक सरल तकनीक है। अपनी धारणाएं अपने सिद्धांत अपने पास रखो। मेरे पास आओ और बैठो। बुद्ध ने तब उन्हें मुक्त होने के लिए विपश्यना की ध्यान पद्धति दी और उसके चार चरण बताए – कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना, धम्मानुपश्यना। बुद्ध यह तकनीक वर्षों तक सिखाते रहे। हजारो लोग शांत बैठते और विपश्यना और ध्यान कर मुक्त होते।

भगवान बुद्ध का कहना था कि धर्म का अर्थ है सच्ची प्रकृति। सच्ची प्रकृति क्या है? शांति, प्यार, मैत्री, आनंद और मौन जो इन सबको जन्म देती है। मौन अप्रसन्नता, अपराध बोध, दुख, भय, अज्ञानता, अक्खड़ता सब को निगल जाती है और बुद्धिमत्ता, शक्ति, सुंदरता, ज्ञान और शांति को जन्म देती है। कदाचित् इसीलिए जब बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ तो वे सप्ताह भर मौन रहे।

एक क्षण के समझौते के बल ही बुद्ध अपने जीवनकाल में ही पूरे एशिया में ईश्वर की तरह पूजे जा सकते थे, परंतु वे समझौता नहीं चाहते थे। बुद्ध ने कभी भी वेद, जातिभेद, पुरोहित, सामाजिक प्रथा – किसी के भी सामने माथा नहीं झुकाया। जहां तक तर्क विचार चल सकता है, वहां तक निर्भीकता क साथ उन्होंने तर्क विचार किया। इतना निर्भीक सत्यानुसंधान, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम संसार ने कभी भी नहीं देखा। बुद्ध अन्य सभी की अपेक्षा अधिक निष्कपट तथा अधिक साहसी थे। उन्होंने कहा – “जो तुमने सुना उसमें विश्वास न कर लो, न इसलिए विश्वास कर लो कि ये सिद्धांत तुम्हें पिछली पीढ़ियों से प्राप्त हुए हैं; किसी बात में इसलिए विश्वास न कर लो कि उसे लोग अंधो की तरह मानते हैं; न इसलिए विश्वास करो कि कोई वृद्ध महर्षि कुछ कह रहे हैं, न उन सत्यों में विश्वास कर लो, जिनसे अभ्यासवश तुम्हारा संबंध हो गया है और न अपने गुरुओं अथवा वृद्धजनों के प्रमाणपत्र पर विश्वास कर लो। अपने आप सोचो विश्लेषण करो और तब यदि निष्कर्ष तुम्हें बुद्धिसंगत तथा सबके लिए हितकर लगे, तो उसमें विश्वास करो और अपने जीवन में ढाल लो । ” उन्होंने उस भाषा (संस्कृत) तक को अस्वीकार कर दिया, जिसमें परंपरानुसार धर्म की शिक्षा भारत में दी जाती थी, ताकि उनके अनुयायियों में उस भाषा के सहवर्ती अंधविश्वासों को ग्रहण कर लेने की संभावना न रहे। बुद्ध के समय संस्कृत केवल पंडितों के ग्रंथों की ही भाषा थी, जनभाषा नहीं रह गई थी। उनके ब्राह्मण शिष्यों ने उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत भाषा में करना चाहा पर बुद्धदेव सदा उनसे यही कहते –“मैं दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूं, अत: जनभाषा में ही मुझे बोलने दो।”

उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि ईश्वर है और न उसका खंडन ही किया। उन्होंने कहा – ‘अगर कोई ईश्वर है तो अच्छे बनकर तुम उसे प्राप्त करो। यदि कोई ईश्वर नहीं है, तो अच्छा बनना स्वयं उत्तम है।’ उनसे कई बार ईश्वर के संबंध में प्रश्न पूछे गए, पर उन्होंने सदैव यही उत्तर दिया – “मैं नहीं जानता। ” किसी ने पूछा ईश्वर है, तो उन्होंने उत्तर दिया “मैंने ईश्वर की बात कब कही? मैं कहता हूँ भले बनो और भलाई करो” वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बल से बुराई का निवारण नहीं किया जा सकता। मल से मल को नहीं धोया जा सकता, घृणा से घृणा को नहीं मिटाया जा सकता। हिंसा और प्रतिहिंसा का उन्होंने सदैव विरोध किया। उनका मत था - “यदि कोई तुम्हें आहत करता है और तुम उसे प्रतिकार में आहत करने के लिए अपना हाथ उठाते हो, तो इससे तुम्हारे घाव को तो आराम नहीं होगा – हां संसार के पापों में एक वृद्धि अवश्य हो जाएगी।” वे सदा इस मौलिक सत्य पर बल देते कि हम शुभ और पवित्र बनें और दूसरों को पवित्र बनने में सहायता दें। उनका विश्वास था कि मनष्य को काम करना चाहिए और अपने जीवन को दूसरों में पाना चाहिए। दूसरों के प्रति भलाई करना ही अपने प्रति भलाई करने का एक मात्र उपाय है। चमत्कारों को वे भ्रामक मानते थे और कहते थे कि “चमत्कारों को अपनी धर्मनिष्टा का आधार मत बनाओ। केवल शाश्वत तत्वों में ही सत्य को प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न करो”

उन्होंने कभी किसी को अपशब्द नहीं कहे और न स्वयं अपने लिए कोई दावा किया। उनका मत था कि धर्म में अपने निर्वाण के लिए स्वयं पुरुषार्थ करना चाहिए। उनका स्पष्ट कहना था कि ‘मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। कोई भी तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। अपना धर्म (निर्वाण) स्वयं प्राप्त करो।’ मनुष्य और मनुष्य तथा मनुष्य

और पशु के बीच की असमानता पर उन्होंने आपत्ति की। वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने मद्यनिषेध का प्रतिपादन किया। बुद्ध ही संन्यासाश्रम के मृत ढांचे में प्राणों का संचार कर सके। इस जगत मे सबसे पहले बुद्ध ने ही धर्म प्रचार की प्रथा चलाई। मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षित करने का विचार भी सबसे पहले उन्ही के मन में उदित हुआ। बौद्ध धर्म संसार का सबसे पहला मिशनरी धर्म था, पर बुद्ध की शिक्षाओं में से एक यह भी है कि किसी धर्म को विरोधी न बनाया जाए। धर्म एक दूसरे से युद्ध करके अपनी शक्ति क्षीण करते हैं।

हर एक धर्म में किसी एक प्रकार की साधना चरमसीमा पर पहुंची हुई होती है। बौद्ध धर्म में निष्काम कर्म का भाव अत्यंत विकसित है। बुद्ध के उपदेश में न आत्मा है न परमात्मा, केवल कर्म है। मनुष्य ईश्वर से तो प्रेम करता था परंतु अपने बंधु मानव को भूल बैठा था। यह प्रथम अवसर था जब बुद्ध ने एक दूसरे ईश्वर – मानव की ओर देखा। यह मानव है, जिससे प्रेम किया जाना चाहिए। सारे अनुष्टान मिथ्या हैं। सारे मोह को ध्वस्त कर दो। जो सत्य है, वही बचेगा। बादल हटेंगे तो सूर्य चमक उठेगा। किसी अंधविश्वास के निमित्त कर्म न करो, न कोई पुरस्कार पाने के लिए, न किसी ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए। “यदि जैसा ब्राह्मण शिक्षा देते हैं वैसा ईश्वर है, तो इस जगत में इतना दुख क्यों है? ठीक मेरे समान वह भी कार्य कारण नियम का दास है। अन्यथा वह सृष्टि क्यों रचता है? ऐसा ईश्वर किंचित भी संतोषजनक नहीं है। ” प्रार्थना और कृपा से कुछ नहीं मिलने वाला। ये मनुष्य को दुर्बल और अंधविश्वासी बनाती हैं। कठिन श्रम ही एकमात्र रास्ता है।

बुद्ध एक पशु को बचाने के लिए अपने प्राण भी देने को उद्यत रहते। बलि देने को सन्नद्ध राजा से उन्होंने कहा -यदि किसी निरीह पशु का होम करने से तुम्हें स्वर्गप्राप्ति हो सकती है, तो मनुष्य के होम से किसी उच्च फल की प्राप्ति होगी। राजन् उस पशु के पाश काटकर मेरी आहुति दे दो – शायद तुम्हारा अधिक कल्याण हो सके। राजा स्तब्ध रह गया। बुद्ध ने निम्नतर प्राणियों पर दया की शिक्षा दी। तबसे कोई भी धर्म या संप्रदाय ऐसा नहीं हुआ, जिसने समस्त प्राणियों, पशुओं तक के प्रति प्रेम की शिक्षा न दी हो। वह साहस, निर्भीकता और विराट प्रेम - उनके व्यक्तित्व का आकर्षण है।

वे जीवन में महान थे तो मृत्यु में भी महान थे। मरने से पूर्व उन्होंने अत्यंत निम्नजाति के व्यक्ति का दिया भोजन खाया और अपने शिष्यों से कहा कि जाओ उससे कहो कि उसने मेरे जीवन की सबसे बड़ी सेवाओं में से एक मेरे प्रति की है। एक बूढ़ा आदमी कई योजन चल कर उनके पास आया और बुद्ध ने उसे अपने अंतिम समय में भी उपदेश दिया। उनकी मृत्यु सन्निकट देख उनके शिष्य रोने लगे, तो उन्होंने कहा – यह क्या है मेरी सारी शिक्षओं का फल यही है। किसी मिथ्याबंधन को न रहने दो, न मुझ पर निर्भरता को, न जाते हुए व्यक्ति के मिथ्या महिमामंडन को ।

समग्रत: बुद्ध नैतिकता, निर्भीकता और स्वाबलंबन सिखाते हैं। वे मूक पशुओं के प्रथम पक्षपाती हैं; मद्यनिषेध के प्रथम प्रतिपादक हैं; जाति विध्वंसक हैं; मानव मात्र ही नहीं प्राणि मात्र की समता के उदघोषक और धर्म में मिशनरी संस्कृति के प्रवर्तक हैं; तर्क और अनुभूति को महत्व देते हैं; और कर्म एवं परोपकार की शिक्षा देते हैं। विवेकानंद के शब्दों में – "ईश्वर में विश्वास रखने से मार्ग बहुत सुगम हो जाता है पर बुद्ध का चरित्र बताता है कि एक ऐसा व्यक्ति भी परमोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है,, जो नास्तिक है, जिसका किसी दर्शन में विश्वास नहीं, जो न किसी संप्रदाय को मानता है और न किसी मंदिर मस्जिद में जाता है। वे एक ही व्यक्ति थे, जिनके बारे में उनके मित्र या शत्रु यह कभी न कह सके कि उन्होंने एक भी ऐसी साँस ली या रोटी का एक भी ऐसा टुकड़ा खाया, जिसमें सबके कल्याण का भाव न रहा हो। बुद्ध ही एक ऐसे मानव थे जो सदैव नितांत प्रकृतिस्थ रहे। जितने मनुष्यों ने जन्म लिया है, उनमें अकेले एक प्रबुद्ध मानव।"