महात्मा बुद्ध कोई जन्मना बुद्ध नहीं थे। वे राजकुमार के रूप में पैदा हुए थे - राजकुमार सिद्धार्थ गौतम। हर सुख सुविधा उनके एक इशारे पर उन्हें उपलब्ध थी। पर उनका मन उसमें नहीं रमा। बाहर की दुनिया उन्हें बेचैन करते रही। उन्हें बीमार व्यक्ति को देखा, किसी वृद्ध को देखा और किसी मृत व्यक्ति को देखा। ये तीन घटनाएं उन्हें यह बोध कराने के लिए काफी थीं कि संसार दुखमय है। जीवन में कहीं सुख नहीं है, जीवन में कोई अर्थ नहीं है। वे सत्य को खोज में निकल पड़े। चुपचाप रात में महल, पत्नी और पुत्र को छोड़ दिया। उनकी यह खोज वर्षों चलती रही। अनेक गुरुओं के पास भटके। उन्होंने वह सब कुछ किया, जो लोगों ने उन्हें करने को कहा- एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहे, उपवास किए और अनेक मार्गों का अनुसरण किया। बीच में कभी-कभी संसारी होने की इच्छा भी जागी। कुछ एक बार काम उनके निकट आया और बोला - छोड़ो भी सत्य की खोज। चलो संसार में लौट चलो। पर उस महावीर ने अपने अतुल पराक्रम से उसे उसी क्षण परास्त कर दिया। उन्होंने कहा – “अज्ञानपूर्वक केवल खा-पीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है, पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्ध क्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है।” स्वार्थपूर्ण व्यक्तिभाव से चिपके रहने के खोखलेपन के महान सत्य का अनुभव करने के लिए उन्हें आत्मानुसंधान में अनेक वर्ष बिताने पड़े। इतने महान नि:स्वार्थ अथक कर्मी को भी समस्त रहस्य जानने के लिए कितने विकट संघर्ष करने पड़े। तब एक लंबी साधना के बाद पूर्णिमा की रात को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और वे बुद्ध हो गए। बुद्ध एक अवस्था का सूचक है। इसका अर्थ है – अनंत आकाश के समान अनंत ज्ञान।
गौतम बुद्ध निरंतर यही कहते रहे कि वे पच्चीसवें बुद्ध थे। उनके पहले के 24 बुद्धों का इतिहास को कोई ज्ञान नहीं, परंतु हमारे ऐतिहासिक बुद्ध ने उन बुद्धों द्वारा डाली हुई भित्ति पर ही अपने धर्मप्रासाद का निर्माण किया है। उदाहरणार्थ, जब किसी ने उनसे धर्म का मार्ग सरल भाषा में समझाने को कहा, तो उन्होंने बताया -
सब्ब पापस्स अकरणं, कुसलस्स उप संपदा।
सचित्त परियोपदनं, एतं बुद्धानसासनं।
सभी प्रकार के पापों को न करना, कुशल कर्मों का संपादन करना और अपने चित्त को निर्मल करना – यही समस्त बुद्धों की शिक्षा है। अपनी वाणी और शरीर से दूसरों की हानि करना ही पाप है। जिस कार्य से दूसरों को सुख पहुंचता हो, शांति मिलती हो, उनका मंगल होता हो, वही पुण्य है। और तीसरी बात कही चित्त की निर्मलता की। चित्त मैला होता है, तभी शरीर और वाणी से दुष्कर्म होते हैं। निर्मल चित्त व्यक्ति दूसरों को हानि नहीं पहुंचा सकता, वह तो कल्याण ही करेगा। चित्त की इस अवस्था तक पहुँचने के लिए बुद्ध ने विपश्यना की पद्धति दी।
वे अपनी निजी मुक्ति के लिए वन में तप करने नहीं गए थे। उनकी चिंता यही थी कि दुनिया जली जा रही है और उसे बचाने का कोई उपाय मुझे खोज निकालना चाहिए। उनके समस्त जीवन की .यही चिंता थी कि दुनिया में इतना दुख क्यों हैं? बुद्ध ने चार सत्यों का अन्वेषण किया ।पहला सत्य – संसार दुखमय है। दूसरा सत्य – दुख का कारण है। तीसरा सत्य – कारण का निवारण है और चौथा सत्य दुख से निकलने का मार्ग है। दुख का कारण है दूसरों से ऊँचा चढ़ जाने की हमारी इच्छा और हमारी स्वार्थपरता। हम अपने लिए वस्तुओं की कामना करते हैं। छुटकारा पाने का मार्ग है स्व का परित्याग करना। स्व की सत्ता नहीं है। प्रपंचात्मक जगत की है। जन्म मरण चक्र के पीछे आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है। बौद्ध दर्शन में ‘idea’ या ‘Thought’ आदि शब्दों के लिए विज्ञान शब्द का प्रयोग किया गया है। एक विज्ञान उत्तरोत्तर दूसरे विज्ञान का अनुगमन करता रहता है। प्रत्येक विज्ञान एक ही क्षण में उदय होता है, व्यय हो जाता है। शरीर सारे समय परिवर्तित होता रहता है. इसी प्रकार मन और चेतना भी। इसलिए स्व एक भ्रम है। सारी स्वार्थपरता इस स्व को पकड़े रहने से उत्पन्न होती है। यदि हम यह जान लें कि स्व नहीं है, तो हम सुखी होंगे और दूसरों को भी सुखी बनाएंगे।
बुद्ध के बताए मार्ग पर चलकर दुख से निवृत्ति हासिल की जा सकती है। यह मार्ग है - शील समाधि एवं प्रज्ञा का मार्ग। इसमें शील के तीन अंग, समाधि के तीन अंग और प्रज्ञा के दो अंग है। इस प्रकार यह आठ अंगो वाला मार्ग है- अष्टांग मार्ग। शील का अर्थ है सदाचार –इसके अंतर्गत तीन अंग आते हैं – सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मांत और सम्यक् आजीविका। सम्यक् वाणी का अर्थ है कि वाणी शुद्ध, निर्मल और पवित्र हो। जो झूठ बोलकर ठगता है, कड़वी बात बोलकर जी दुखाता है, चुगली करके लोगों के संबंध तुड़वाता है, फिजूल बात करके समय बर्बाद करता है, वह वाणी को मैला करता है। वाणी के इन चार प्रकार के मैलों से बचें, तो वाणी अपने आप शुद्ध, पवित्र और निर्मल हो जाएगी। सम्यक् कर्मांत का अर्थ है कि शरीर के कर्म उचित हों। इसे कर्मांत इसलिए कहा क्योंकि हर कर्म की शुरुआत मन से होती है, फिर वह वाणी पर उतरता है और अंत में शरीर पर उतरता है। शरीर का हर कर्म सम्यक् अर्थात उचित यानी शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। किसी प्राणी की हत्या करना, किसी दूसरे की वस्तु को चुराना, व्यभिचार करना और मादक पदार्थों का सेवन करना - शरीर के इन चार दुष्कर्मों से बच सकें, तो शरीर के कर्म अपने आप निर्मल हो जाएंगे। शील का तीसरा अंग है सम्यक् आजीविका। सम्यक् आजीविका का अर्थ है हम अपने जीवन यापन के लिए जो साधन चुनें, उसमें अन्य किसी की हानि न हो और जिससे हमारी आय होती है उसे हम धोखा न दें।
भगवान बुद्ध शील सदाचार के उपदेशों तक ही आकर नहीं रुक जाते, क्योंकि ये उपदेशात्मक बातें बुद्धि कॆ स्तर पर तो खूब समझ में आती हैं, किंतु जब करने का समय आता है तो दुष्कर्म हो ही जाता है क्योंकि मन वश में नहीं रहता। इसलिए बुद्ध मन को वश में करने का उपाय भी बताते हैं और वह है समाधि। इसके तीन अंग हैं – सम्मा वायामो, सम्मा सति, सम्मा समाधि। सम्मा वायामो का अर्थ है सम्यक् व्यायाम। जिस प्रकार शरीर के रोग और विकार दूर करने के लिए उचित व्यायाम आवश्यक है, उसी प्रकार मन के विकार और मन की दुर्बलता को दूर करने के लिए मन के व्यायाम आवश्यक हैं। मन का व्यायाम क्या है? मन का निरीक्षण कर यह देखें कि मन में यह बुराई है, यह खराबी है, तो उसे निकालने का प्रयास करें। फिर निरीक्षण कर देखें कि मन में कोई बुराई नहीं है, तो मन के दरवाजे बंद कर लें और प्रयत्न करें कि जो बुराई मन में नहीं है वह आने न पाए। फिर देखें कि मन में यह अच्छाई है, यह सद्गुण है, तो कोशिश करें कि वे कायम रहें, उनका संवर्द्धन हो। फिर मन को देखें और जब यह अनुभव करें कि मन में अमुक सद्गुण तो हैं ही नहीं, तो प्रयास करें कि वे सद्घुण हासिल हों। बस यही चारो मन के व्यायाम हैं। समाधि का अगला अंग है सम्मा सति अर्थात् सम्यक् स्मृति। आज स्मृति का अर्थ है याददाश्त, स्मरण-शक्ति। किंतु बुद्ध के समय मे स्मृति का अर्थ था जागरूकता, सावधानी। जागरूकता वर्तमान क्षण की हुआ करती है, बीते हुए क्षणों के प्रति कोई सावधान नहीं रह सकता। हम वर्तमान क्षण के प्रति जितने जितने सजग हैं, उतनी-उतनी सम्यक् स्मृति है। मन अपनी पुरानी आदत के अनुसार भागता रहता है, कभी भूत में तो कभी भविष्य में। हम कोशिश कर उसे वर्तमान पर लाएं और जागरूक होकर वर्तमान की सच्चाई को देखें यही सम्यक् स्मृति है। समाधि का तीसरा अंग है सम्मा समाधि अर्थात् सम्यक् समाधि। समाधि का अर्थ है चित्त की एकाग्रता। परंतु चित्त को एकाग्र करते समय उसे राग द्वेष और मोह विहीन रखना है। हम किसी के प्रेम में पूरा तरह एकाग्र हो सकते हैं, किसी की निंदा में पूरी तरह एकाग्र हो सकते हैं, किसी के शोक में पूरी तरह एकाग्र हो सकते हैं – ऐसी एकाग्रता समाधि नहीं है, क्योंकि यह राग, द्वेष और मोह से ग्रस्त है । हमारा चित्त एकाग्र हो, वर्तमान की सच्चाई के प्रति सतत जागरूक हो और राग द्वेष मोह विहीन हो – तभी वह सम्यक् समाधि कहलाएगी।
धर्म के शेष दो अंग प्रज्ञा के अंतर्गत आते हैं – सम्मा संकप्पो और सम्मा दिट्ठि। सम्मा संकल्प अर्थात् सम्यक् संकल्प। हमारे मन में जो विचार चलते हैं, जो संकल्प विकल्प चलते हैं वे सम्यक् होने चाहिए, सही होने चाहिए। विचार और संकल्प-विकल्प रागरंजित, द्वेष-दूषित और मोह विमूढ़ित न हों यही सम्यक् संकल्प है। प्रज्ञा का दूसरा अंग है सम्मा दिट्ठि अर्थात् सम्यक् दृष्टि। जो वस्तु, जो बात जैसी है, उसे वैसा ही उसके स्वाभाविक गुण-धर्म में देखें, किसी वाद, सिद्धांत, मान्यता या पूर्वाग्रह के चश्मे से नहीं। यह सम्यक् दृष्टि है। बुद्ध ने प्रज्ञा के तीन सोपान बताए- श्रुतमयी प्रज्ञा, चिंतनमयी प्रज्ञा और भावनामयी प्रज्ञा। श्रुतमयी प्रज्ञा का अर्थ है जो ज्ञान हमने सुन लिया अथवा ग्रंथों में पढ़ लिया। यह बहुत उपयोगी और लाभप्रद है, किंतु इस ज्ञान से मार्गदर्शन और प्रेरणा लेकर आगे कदम बढ़ाना होगा, अन्यथा केवल सुना अथवा पढ़ा हुआ ज्ञान अंधश्रद्धा का रूप ले लेता है। इसलिए अगला सोपान है चिंतनमयी प्रज्ञा। जो कुछ सुना है, पढ़ा है, उस पर चिंतन मनन करके देखना है कि क्या उचित है क्या न्यायसंगत है क्या तर्कसंगत है आदि। तब ही उसे स्वीकार करना है। परंतु यही पर रुक गए तो स्थिति और भी खतरनाक हो सकती है। सिर पर यह दंभ सवार हो सकता है कि मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया, सारे ग्रंथ पढ़ लिए, उन्हें तर्क वितर्क से समझ लिया, मैं बड़ा प्रज्ञावान हो गया। अत: श्रुतमयी और चिंतनमयी प्रज्ञा से लाभान्वित होकर भावनामयी प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश करना होता है। महापुरुषों ने जो बात कही, पुस्तकों में जो पढ़ा और चिंतन मनन करके जो समझा उसे अपनी अनुभूतियों पर, अनुभव पर उतारना होता है और उन अनुभूतियों, अनुभवों से जो प्रज्ञा बढ़ती है वही भावनामयी प्रज्ञा है। वही सच्चे अर्थों में कल्याणकारी प्रज्ञा है। उसी से मनोबल सधता है और मन की गाँठे खुलती हैं।
बुद्ध ने बाहर की दुनिया को और उसकी सच्चाइयों को खूब देखा। फिर अंतरमुखी होकर अंतर की सच्चाइयों को देखने लगे। इस शरीर की क्या सच्चाई है – हड्डी है, मांस है, रक्त है, त्वचा है आदि-आदि। फिर और गहरे देखा तो पाया कि ये सब नन्हे नन्हे कणों से बने हैं, जिन्हें उन्होंने अष्टकलाप कहा। परमाणु से भी छोटे ये अष्टकलाप लगातार उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, उदय होते हैं, व्यय होते हैं, यानी ये भी ठोस नहीं है, सब तरंगे ही तरंगे हैं। पलक झपकने भर में ये अष्टकलाप शत सहस्र कोटि बार उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं। अनुभूतियों के स्तर पर जब यह बात स्पष्ट होती है तो अनित्य बोध जागता है। राग टूटते हैं, द्वेष दूर होते हैं मोह दूर होते हैं, व्याकुलता दूर होती और जब अनित्य बोध पुष्ट होने लगता है तो प्रज्ञा का दूसरा अंग अनात्मबोध जागता है। जब कुछ स्थायी ही नहीं है जब मेरा शरीर तक निरंतर उदय व्यय हो रहा है तो फिर क्या मैं और क्या मेरा यही अनात्मबोध है। अनित्य बोध और अनात्म बोध के साथ प्रज्ञा के तीसरा अंग - दुख का वास्तविक बोध होने लगता है। जो प्रतिक्षण भंग हो रहा है, बदल रहा है, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं, जो मैं नहीं, जो मेरा नहीं उसके प्रति जितनी- जितनी आसक्ति है, उतना ही दुख है। यह बात अनुभूतियों से समझ में आती है और अनुभूतियों से ही अनित्य, अनात्म और दुख - ये तीन प्रज्ञाएं भीतर से अपने आप जागती हैं।
बुद्ध भारत के इतिहास में एक रोचक मोड़ पर पैदा हुए थे। यह एक ऐसा समय था, जब भारत समृद्ध था और दार्शनिक चिंतन की महान ऊंचाइयों तक पहुंचा हुआ था। एक अत्यंत बौद्धिक समाज में लोग सोचते हैं कि वे सब कुछ जानते हैं, पर होता इसके विपरीत है। भारत में भी यही स्थिति थी, इसलिए बुद्ध ने धर्म के अन्यान्य पक्षों को कुछ समय के लिए दूर रखकर केवल दुखों से पीड़ित संसार की सहायता करने के कार्य को प्राथमिकता दी। बुद्ध ने कहा – मेरे पास तुम्हारे लिए एक सरल तकनीक है। अपनी धारणाएं अपने सिद्धांत अपने पास रखो। मेरे पास आओ और बैठो। बुद्ध ने तब उन्हें मुक्त होने के लिए विपश्यना की ध्यान पद्धति दी और उसके चार चरण बताए – कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना, धम्मानुपश्यना। बुद्ध यह तकनीक वर्षों तक सिखाते रहे। हजारो लोग शांत बैठते और विपश्यना और ध्यान कर मुक्त होते।
भगवान बुद्ध का कहना था कि धर्म का अर्थ है सच्ची प्रकृति। सच्ची प्रकृति क्या है? शांति, प्यार, मैत्री, आनंद और मौन जो इन सबको जन्म देती है। मौन अप्रसन्नता, अपराध बोध, दुख, भय, अज्ञानता, अक्खड़ता सब को निगल जाती है और बुद्धिमत्ता, शक्ति, सुंदरता, ज्ञान और शांति को जन्म देती है। कदाचित् इसीलिए जब बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ तो वे सप्ताह भर मौन रहे।
एक क्षण के समझौते के बल ही बुद्ध अपने जीवनकाल में ही पूरे एशिया में ईश्वर की तरह पूजे जा सकते थे, परंतु वे समझौता नहीं चाहते थे। बुद्ध ने कभी भी वेद, जातिभेद, पुरोहित, सामाजिक प्रथा – किसी के भी सामने माथा नहीं झुकाया। जहां तक तर्क विचार चल सकता है, वहां तक निर्भीकता क साथ उन्होंने तर्क विचार किया। इतना निर्भीक सत्यानुसंधान, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम संसार ने कभी भी नहीं देखा। बुद्ध अन्य सभी की अपेक्षा अधिक निष्कपट तथा अधिक साहसी थे। उन्होंने कहा – “जो तुमने सुना उसमें विश्वास न कर लो, न इसलिए विश्वास कर लो कि ये सिद्धांत तुम्हें पिछली पीढ़ियों से प्राप्त हुए हैं; किसी बात में इसलिए विश्वास न कर लो कि उसे लोग अंधो की तरह मानते हैं; न इसलिए विश्वास करो कि कोई वृद्ध महर्षि कुछ कह रहे हैं, न उन सत्यों में विश्वास कर लो, जिनसे अभ्यासवश तुम्हारा संबंध हो गया है और न अपने गुरुओं अथवा वृद्धजनों के प्रमाणपत्र पर विश्वास कर लो। अपने आप सोचो विश्लेषण करो और तब यदि निष्कर्ष तुम्हें बुद्धिसंगत तथा सबके लिए हितकर लगे, तो उसमें विश्वास करो और अपने जीवन में ढाल लो । ” उन्होंने उस भाषा (संस्कृत) तक को अस्वीकार कर दिया, जिसमें परंपरानुसार धर्म की शिक्षा भारत में दी जाती थी, ताकि उनके अनुयायियों में उस भाषा के सहवर्ती अंधविश्वासों को ग्रहण कर लेने की संभावना न रहे। बुद्ध के समय संस्कृत केवल पंडितों के ग्रंथों की ही भाषा थी, जनभाषा नहीं रह गई थी। उनके ब्राह्मण शिष्यों ने उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत भाषा में करना चाहा पर बुद्धदेव सदा उनसे यही कहते –“मैं दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूं, अत: जनभाषा में ही मुझे बोलने दो।”
उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि ईश्वर है और न उसका खंडन ही किया। उन्होंने कहा – ‘अगर कोई ईश्वर है तो अच्छे बनकर तुम उसे प्राप्त करो। यदि कोई ईश्वर नहीं है, तो अच्छा बनना स्वयं उत्तम है।’ उनसे कई बार ईश्वर के संबंध में प्रश्न पूछे गए, पर उन्होंने सदैव यही उत्तर दिया – “मैं नहीं जानता। ” किसी ने पूछा ईश्वर है, तो उन्होंने उत्तर दिया “मैंने ईश्वर की बात कब कही? मैं कहता हूँ भले बनो और भलाई करो” वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बल से बुराई का निवारण नहीं किया जा सकता। मल से मल को नहीं धोया जा सकता, घृणा से घृणा को नहीं मिटाया जा सकता। हिंसा और प्रतिहिंसा का उन्होंने सदैव विरोध किया। उनका मत था - “यदि कोई तुम्हें आहत करता है और तुम उसे प्रतिकार में आहत करने के लिए अपना हाथ उठाते हो, तो इससे तुम्हारे घाव को तो आराम नहीं होगा – हां संसार के पापों में एक वृद्धि अवश्य हो जाएगी।” वे सदा इस मौलिक सत्य पर बल देते कि हम शुभ और पवित्र बनें और दूसरों को पवित्र बनने में सहायता दें। उनका विश्वास था कि मनष्य को काम करना चाहिए और अपने जीवन को दूसरों में पाना चाहिए। दूसरों के प्रति भलाई करना ही अपने प्रति भलाई करने का एक मात्र उपाय है। चमत्कारों को वे भ्रामक मानते थे और कहते थे कि “चमत्कारों को अपनी धर्मनिष्टा का आधार मत बनाओ। केवल शाश्वत तत्वों में ही सत्य को प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न करो”
उन्होंने कभी किसी को अपशब्द नहीं कहे और न स्वयं अपने लिए कोई दावा किया। उनका मत था कि धर्म में अपने निर्वाण के लिए स्वयं पुरुषार्थ करना चाहिए। उनका स्पष्ट कहना था कि ‘मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। कोई भी तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। अपना धर्म (निर्वाण) स्वयं प्राप्त करो।’ मनुष्य और मनुष्य तथा मनुष्य
और पशु के बीच की असमानता पर उन्होंने आपत्ति की। वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने मद्यनिषेध का प्रतिपादन किया। बुद्ध ही संन्यासाश्रम के मृत ढांचे में प्राणों का संचार कर सके। इस जगत मे सबसे पहले बुद्ध ने ही धर्म प्रचार की प्रथा चलाई। मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षित करने का विचार भी सबसे पहले उन्ही के मन में उदित हुआ। बौद्ध धर्म संसार का सबसे पहला मिशनरी धर्म था, पर बुद्ध की शिक्षाओं में से एक यह भी है कि किसी धर्म को विरोधी न बनाया जाए। धर्म एक दूसरे से युद्ध करके अपनी शक्ति क्षीण करते हैं।
हर एक धर्म में किसी एक प्रकार की साधना चरमसीमा पर पहुंची हुई होती है। बौद्ध धर्म में निष्काम कर्म का भाव अत्यंत विकसित है। बुद्ध के उपदेश में न आत्मा है न परमात्मा, केवल कर्म है। मनुष्य ईश्वर से तो प्रेम करता था परंतु अपने बंधु मानव को भूल बैठा था। यह प्रथम अवसर था जब बुद्ध ने एक दूसरे ईश्वर – मानव की ओर देखा। यह मानव है, जिससे प्रेम किया जाना चाहिए। सारे अनुष्टान मिथ्या हैं। सारे मोह को ध्वस्त कर दो। जो सत्य है, वही बचेगा। बादल हटेंगे तो सूर्य चमक उठेगा। किसी अंधविश्वास के निमित्त कर्म न करो, न कोई पुरस्कार पाने के लिए, न किसी ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए। “यदि जैसा ब्राह्मण शिक्षा देते हैं वैसा ईश्वर है, तो इस जगत में इतना दुख क्यों है? ठीक मेरे समान वह भी कार्य कारण नियम का दास है। अन्यथा वह सृष्टि क्यों रचता है? ऐसा ईश्वर किंचित भी संतोषजनक नहीं है। ” प्रार्थना और कृपा से कुछ नहीं मिलने वाला। ये मनुष्य को दुर्बल और अंधविश्वासी बनाती हैं। कठिन श्रम ही एकमात्र रास्ता है।
बुद्ध एक पशु को बचाने के लिए अपने प्राण भी देने को उद्यत रहते। बलि देने को सन्नद्ध राजा से उन्होंने कहा -यदि किसी निरीह पशु का होम करने से तुम्हें स्वर्गप्राप्ति हो सकती है, तो मनुष्य के होम से किसी उच्च फल की प्राप्ति होगी। राजन् उस पशु के पाश काटकर मेरी आहुति दे दो – शायद तुम्हारा अधिक कल्याण हो सके। राजा स्तब्ध रह गया। बुद्ध ने निम्नतर प्राणियों पर दया की शिक्षा दी। तबसे कोई भी धर्म या संप्रदाय ऐसा नहीं हुआ, जिसने समस्त प्राणियों, पशुओं तक के प्रति प्रेम की शिक्षा न दी हो। वह साहस, निर्भीकता और विराट प्रेम - उनके व्यक्तित्व का आकर्षण है।
वे जीवन में महान थे तो मृत्यु में भी महान थे। मरने से पूर्व उन्होंने अत्यंत निम्नजाति के व्यक्ति का दिया भोजन खाया और अपने शिष्यों से कहा कि जाओ उससे कहो कि उसने मेरे जीवन की सबसे बड़ी सेवाओं में से एक मेरे प्रति की है। एक बूढ़ा आदमी कई योजन चल कर उनके पास आया और बुद्ध ने उसे अपने अंतिम समय में भी उपदेश दिया। उनकी मृत्यु सन्निकट देख उनके शिष्य रोने लगे, तो उन्होंने कहा – यह क्या है मेरी सारी शिक्षओं का फल यही है। किसी मिथ्याबंधन को न रहने दो, न मुझ पर निर्भरता को, न जाते हुए व्यक्ति के मिथ्या महिमामंडन को ।
समग्रत: बुद्ध नैतिकता, निर्भीकता और स्वाबलंबन सिखाते हैं। वे मूक पशुओं के प्रथम पक्षपाती हैं; मद्यनिषेध के प्रथम प्रतिपादक हैं; जाति विध्वंसक हैं; मानव मात्र ही नहीं प्राणि मात्र की समता के उदघोषक और धर्म में मिशनरी संस्कृति के प्रवर्तक हैं; तर्क और अनुभूति को महत्व देते हैं; और कर्म एवं परोपकार की शिक्षा देते हैं। विवेकानंद के शब्दों में – "ईश्वर में विश्वास रखने से मार्ग बहुत सुगम हो जाता है पर बुद्ध का चरित्र बताता है कि एक ऐसा व्यक्ति भी परमोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है,, जो नास्तिक है, जिसका किसी दर्शन में विश्वास नहीं, जो न किसी संप्रदाय को मानता है और न किसी मंदिर मस्जिद में जाता है। वे एक ही व्यक्ति थे, जिनके बारे में उनके मित्र या शत्रु यह कभी न कह सके कि उन्होंने एक भी ऐसी साँस ली या रोटी का एक भी ऐसा टुकड़ा खाया, जिसमें सबके कल्याण का भाव न रहा हो। बुद्ध ही एक ऐसे मानव थे जो सदैव नितांत प्रकृतिस्थ रहे। जितने मनुष्यों ने जन्म लिया है, उनमें अकेले एक प्रबुद्ध मानव।"
इतना सब कुछ ऐतिहासिक तथ्य जानने के पश्चात भी ब्राह्मण वादी तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार बताने से बाज नही आये
ReplyDeleteताकि उनकी प्रसिद्धि को भुनाकर अपने अवतार वादी धारणा को सुदृढ़ कर सके सके
इतना सब कुछ ऐतिहासिक तथ्य जानने के पश्चात भी ब्राह्मण वादी तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार बताने से बाज नही आये
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