Saturday, August 7, 2010

दादा जी

ननिहाल से अपने गाँव तक आने के लिए ननिहाल से कोई एक कोस पैदल चलना पड़ता था। तब बस मिलती थी। मैं पैदल रास्ते में दादा जी की उँगली पकड़ कर चल रहा था। सर्दियों के दिन थे। खेतों में पानी लगाया जा रहा था। उनकी मेड़ों पर हम अपना रास्ता तय कर रहे थे। अचानक मेरा पैर मेड़ से फिसल कर पानी भरे खेत में चला गया। मेरे जूते गीली मिट्टी में सन गए। मैं रोने लगा। दादा जी ने कोई दिलासा देने के बजाय पहले तो दो करारी चपत मेरे गाल पर लगाई , बाद में जूते धुलवाए। दादा जी की यही सबसे पुरानी स्मृति मेरे दिमाग में है। दादा जी ननिहाल कब आए थे हम कैसे ननिहाल से विदा हुए यह सब मुझे कुछ याद नहीं। पर हां, दादा जी की जो मान्यताएं थी उनके आधार पर मैं कह सकता हूं कि मैं माँ के साथ ननिहाल गया होऊँगा। माँ का किसी वजह से जल्दी लौटना संभव न हो पाया होगा। तो दादा जी मुझे लिवा लाए होंगे, ताकि मैं कहीं नाना-नानी के लाड़ प्यार में बिगड़ न जाऊँ। दादा जी का मानना था कि बहू को मायके में ज्यादा से ज्यादा साल में दस-पंद्रह दिन रहना चाहिए। शादी के बाद ससुराल ही उसका घर होता है और दूसरे, बच्चे भी ननिहाल में नाना-नानी के लाड़ प्यार में बिगड़ जाते हैं। उनकी यह मान्यता सिर्फ बहुओं के लिए ही नही बल्कि उनकी बेटी, यानी कि हमारी बुआ पर भी लागू होती थी। बुआ जब भी हमारे यहाँ आतीं, जल्दी ही वापस चली जातीं। अगर कभी ज्यादा समय हो जाता तो दादा जी खुद उनसे पूछ लेते कब जाओगी। कोई बुलाने आ रहा है या हम भिजवा दें। इस तरह दादा जी की कुछ कड़ी मान्यताएं थी और दूसरो को वे अच्छी लगती हैं या नहीं इससे उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। इसी तरह बाल छोटे रखने चाहिए इस बात पर वे अडिग रहते। हम लोग जब होस्टल में रहने चले गए, तब भी छुट्टियों में गाँव आने से पहले बाल छोटे करना नही भूलते थे, ताकि दादा जी का कोपभाजन होने से बचा जा सके। बाल छोटे रखने की नसीहत वे रिश्तेदारों और उनके बच्चों को भी देना नहीं भूलते। सुबह-सुबह सबको नहा लेना चाहिए, यह भी उनकी पक्की मान्यता था। खुद जल्दी नहाने के बाद वे रिश्तेदार को भी बोलते- नहा डालो, दलिद्दर दूर हो। सुबह जल्दी उठाने का भी उन्हें बड़ा चाव था। बाहर बारिश हो रही हो तब भी वे सबको सुबह जल्दी उठा देते। बच्चे आसानी से न उठते। मैं और मेरे हमउम्र चचेरे भाइयों ने नोट किया था कि दादा जी सुबह उठाने के लिए त्रिस्तरीय पद्धति अपनाते थे। पहले बड़े प्यार से कहते बेटा उठ बैठो। इतने पर हम लोग कहाँ उठते, सो दादा जी दूसरे चरण पर पहुंच जाते और थोड़े रूखेपन से कहते उठ जाओ अब। इतने पर हम लोग कुलबुला कर रह जाते, तो वे अंतिम चरण पर पहुंच जाते और बड़ी जोर से तथा बड़े क्रोध तथा झटके से कहते - उठ। उस उठ का झटका इतना विकट होता कि हम उस झटके के साथ ही उठकर सीधे बैठ जाते, नींद चाहे बाद में खुलती रहती। घर को हो या पड़ोस का, सुबह जल्दी उठे, छोटे बाल रखे, बिना प्रेस किए कपड़े पहने, ऊधम न मचाए, शांति से बैठा रहे, वह बच्चा अच्छा समझा जाता। अगर कोई बड़े बाल रखे और प्रेस किए हुए कपड़े पहने घूमें और जिंदादिली से हँसता खिलखिलाता रहे, तो दादा जी बारबार भविष्यवाणी करते रहते कि इसने जुल्फे रख ली हैं और टिपटॉप बना घूमता रहता है, यह शर्तिया फेल हो जाएगा, क्योंकि इसका ध्यान पढ़ाई लिखाई में नहीं जुल्फे सँवारने में ही लगा रहता है।



दादा जी को मट्ठा से बड़ा प्यार था। सुबह-सुबह गुड़ से मट्ठा पीते और चाहते कि और लोग भी ऐसा करें फिर वे खेत से बथुआ लाते और उसका रायता बनवाते। खाने के साथ रायता न हो तो उन्हे खाना अधूरा सा लगता। गाँव में मट्ठा मांगने का खूब चलन था, अब भी है। आसपास के जिन लोगों के यहाँ दूध-मट्ठा नहीं होता है, वे दूसरों के यहां से मट्ठा माँग ले जाते। पर दादा जी को यह नागवार गुजरता, उन्हें लगता कि सुबह-सुबह ये मट्ठा माँग ले जाएंगे, तो घर के सब लोगों को पर्याप्त मट्ठा और रायता कैसे मिलेगा। सो वे मट्ठा मांगने आने वाले बच्चों और महिलाओं को कोई बहाना बताकर द्वार से ही लोटा देते। इसलिए वे लोग पहले किसी तरह पता कर लेते कि दादा जी घर पर हैं कि नहीं। जब दादा जी खेत पर चले जाते या किसी काम से इधर-उधर निकल जाते, तभी पड़ोस की महिलाएं चुपके से आकर दादी से मट्ठा ले जातीं। दादा जी का यह मट्ठा प्रेम अंत तक बरकरार रहा। उनके स्वर्गवास से कुछ ही वर्ष पहले जब एक बार मैं गाँव गया, तो वे अपने हाल चाल सुनाते हुए कहने लगे कि अभी कुछ साल और जी लेते पर सत्तन की बहू नहीं जीने देगी। रोज सुबह-सुबह मट्ठा माँगने चल देती है। सत्तन हमारा पड़ोसी है। दादा जी की बड़ी इच्छा रहती कि हम लोग उनके पैर दबाएं। हॉस्टल से जब भी गाँव जाते दादा जी के पैर जरूर दबाते। जब दादा जी बहुत वृद्ध हो गए, तो उनके पैरों मे माँस कम हड्डियां अधिक थी और पैर दबाने से उनको शायद ही कोई आराम मिलता हो, पर तब भी अगर गाँव जाने पर एक- दो दिन तक हम उनके पैर न दबाते, तो वे शिकायत करते। शायद तब उन्हें पैर दबाने से मिलने वाले सुख से ज्यादा अपने मन की बाते करने के लिए हमारा अकेले में उनके निकट बैठना अभीष्ट होता था। जब मेरा बेटा दो-तीन साल को हो गया, तो मैने उससे कहा कि वह बूढ़े दादा जी के पैर दबाया करे, तो वे उसे कहानी सुनाएंगे। उसे भी अपने दादा जी के बजाय बूढ़े दादा जी के पैर दबाने में ज्यादा मन लगता क्योंकि उसके दादा जी तो पैर दबाए जाने के दौरान कभी-कभी पढ़ाई की बात भी कर लेते पर मेरे दादा जी सिर्फ कहानी सुनाते।



हम लोगों की पढ़ाई कायदे से चलनी चाहिए इसके लिए दादा जी के पास कोई प्रोत्साहन तो नहीं था पर दंड विधान जरूर था। जब भी किसी की पढ़ाई गड़बड़ाती या परीक्षा में अच्छे अंक न आते तो दादा जी तुरंत कहते इसका घेउ बंद करो। घी को घेउ कहना दादा जी का निजी प्रयोग था या फिर उनकी पीढी के लोग इसे घेउ कहते रहें होंगे। इसी तरह रायते को गाँव में भी रायता ही कहा जाता पर दादा जी उसे रौतो कहते थे।



दादा जी बहुत स्पष्टवादी थे। उनके स्पष्टवादिता और खरी बात कहने की आदत बहुत थी। वह साफ बात कहते, उसका पालन करते और दूसरों से भी वैसी ही अपेक्षा रखते । एक बार दादा जी एक शादी के मध्यस्थ थे। दोनों ही पक्ष हमारे दूर के रिश्ते-कनैक्शन में आते थे। दादा जी ही मध्यस्थ नहीं थे, हमारा गाँव भी मध्यस्थ, अर्थात मध्य में स्थित था, यानी लड़के वालों के यहाँ से लड़की वालों के यहाँ जाना हो तो बस हमारे गाँव से होकर ही गुजरती थी। खैर, शादी की बातचीत के दौरान दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि बारात में पचास आदमी ही आएंगे। दादा जी ने बात को ज्यादा ही स्पष्ट कर डाला और कहा कि अगर 51 वाँ आदमी आया तो उसे हम अपने गाँव से वापस कर देंगे। लड़के पक्ष के लोग दादा जी को दउआ (ताऊ जी का बिगड़ा हुआ रूप) कहते थे और वे दउआ के खरेपन से इतने परिचित थे कि सचमुच बारात में 50 भी नहीं 50 से भी दो-एक कम आदमी ले जाए गए।



दादा जी का भजन पूजा में ज्यादा मन नहीं रमता था। कभी कभी सर्दियों में नहाने के बाद धूप में आसन डाल कर पूजा करने बैठते और पांच मिनट से भी कम समय कुछ थोड़ा बुदबुदाते और पूजा समाप्त हो जाती। घर के मंदिर में बैठकर व्यवस्थित ढंग से दादा जी को पूजा करते हुए हमने नहीं देखा। हाँ दीपावली और होली पर वे घर के मालिक के तौर पर पूरे विधि विधान पूर्वक पूजा करते। अपने जीवन के अंतिम दिनों मे भी जब वे बहुत कमजोर हो गए थे. तब भी वे दीपावली पर उन्होंने ही पूजा की थी। कुल मिलाकर उनकी छवि जो मेरे दिमाग में बनी थी वह यह कि वे धार्मिक थे, पर कर्मकांड में ज्यादा आस्था नहीं थी। अंधविश्वास से तो कोसो दूर थे, वरना उनकी पीढ़ी के लोगों को जरा-जरा सी बात पर दादा जीओं-फकीरों और झाड़-फूँक के चक्कर में पड़ते देर न लगती थी। स्थानीय साधु-फकीर दादा जी के रहते हमारे घर के आसपास भी न फटकते। दादी भोली-भाली थी, सो दादा जी इस बात का पूरा ध्यान रखते कि कहीं ये चालाक लोग दादी से कुछ ठग न ले जाएं।



जब भी कहीं से कोई चिट्ठी आती तो दादा जी इधर लाओ इधर लाओ कहते हुए सबसे पहले उसे पढ़ते। हालांकि पढ़ने में उन्हें अपनी आँखें थोड़ी मिचमिचानी पड़ती परंतु उन्होंने कभी चश्मा नहीं लगाया। जब हमारे ताऊ जी और पिता जी को चश्मा लग गया था, तब भी दादा जी बड़े मजे से बिना चश्मे के पढ़ सकते थे। चिट्ठी को वे खत कहते और जब भी डाकिया हमारे घर के आस-पास से गुजरता तो दादा जी जरूर पूछते कि हमारा कोई खत तो नहीं है। यह बात दीगर है कि इसका उत्तर ना ही होता क्योंकि अगर चिट्ठी रहती थी, तो डाकिया पहले ही दे देता था। प्रश्न पूछने की नौबत आने का मतलब था कि चिट्ठी नहीं है। फिर भी पूछने की रवायत जारी रहती । शायद ज्यादातर लोग ऐसा ही करते हैं।



दादा जी का अपने बेटों पर सख्त नियंत्रण था। हमारे ताऊजी और पिताजी दोनों ही अध्यापक थे और उनकी तनख्वाह एक ही दिन मिलती थी। सारी तनख्वाह लाकर दादा जी को देना उनका पुनीत कर्तव्य था और उसे खर्च करने का अधिकार सिर्फ दादा जी का था। एक बार दोनों भाइयों ने आपस में तय किया कि तनख्वाह में से बीस-बीस रुपये निकाल लिए जाएँ और शेष रुपये दादा जी को दे दिए जाएं, जिससे कुछ पैसे अपने पास भी रहें। नियत तारीख को जब बीस-बीस रुपए निकाल कर बाकी की तनख्वाह दादा जी को दी, तो दादा जी गिनने के बाद थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे। फिर दोनों लोगों को तनख्वाह लौटाते हुए बोले - लो रख लो, जब तुमने पहले ही अधकट कर लिया तो अब हम इसका क्या करेगे। दोनों भाइयों ने निकाले हुए बीस-बीस रुपये चुपचाप दादा जी को सौंप दिए।



दादा जी को इस बात की बड़ी चाह रहती कि लोग यह समझे कि वे काफी सस्ती सब्जी खरीदते हैं। सब्जी वे खुद खऱीदते औऱ चाहते कि सब्जी उनसे ही खरीदवाई जाए। केवल यह दिखाने के लिए कि वे बहुत सस्ती सब्जी खरीदते हैं, अकसर जितने रुपये में सब्जी खरीदते, उससे कुछ कम करके घर पर बताते। जब कोई सब्जी सस्ती होती तो दादा जी उसका गुणगान करते, लेकिन अगर वही सब्जी महँगी हो जाती तो वे उसकी तुलना भूसा से करने लगते।



जब मेरी तैनाती घर से बहुत दूर हो गई, तो दादा जी ने घर में कह रखा था, कि जब कभी भी उनकी मृत्यु हो, मेरे आने के बाद ही उनका दाह संस्कार किया जाए। ऊपर वाले की कृपा रही और जब उनका अंत समय निकट आया तब मैं घर से बहुत ज्यादा दूर नहीं था. उनकी तवीयत बिगड़ती देख रात में मुझे फोन कर दिया गया था। मैं रात में चल पड़ा और जब उनके पास पहुँचा तब वे अर्द्ध चेतन से थे। उन्हें मेरे आने की सूचना दी गई। वे कुछ नहीं बोले। सूचना दोहराई गई, तो बोले हाँ, हाँ सुन लिया। मैंने उनके शब्दों में वही पुराना स्नेह खोजने की कोशिश की। पर वह उनमें नही था। निश्चय ही यह अर्ध-चेतनता की स्थिति का परिणाम था। अगले दिन सुबह उनकी तबीयत थोड़ी सुधरी सी लग रही थी पर जल्दी ही उनकी हालत फिर गिरने लगी। दोपहर होते होते हम सब और पड़ोस के लोग उनके पास जमा थे। उनकी साँस बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। उनका बोलना बंद हो गया था। फिर उनकी दोनों आखों की कोरों से धीरे धीरे आँसू बहने लगे। पास बैठी पड़ोस की एक बुजुर्ग महिला ने कहा अब जा रहे हैं, हंस रो रहा है। अपनों से हमेशा के लिए विदा लेना आसान नहीं होता।



दादा जी अब नहीं है परंतु उनका व्यक्तित्व मेरी कल्पना में अभी भी मूर्तिमान है। लंबा कद मजबूत शरीर, गौरा रंग, छोटी आँखे और कठोर चेहरा। वह सब के लिए कठोर ही थे पर जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मेरे प्रति उनका स्नेह भी अनुदिन बढ़ता गया। उनके जाने के बाद भी लगता है जैसे मेरे प्रति उनका स्नेह बढ़ने का क्रम अब भी जारी है।

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